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आज (14 सितंबर) हिंदी दिवस है । इस अवसर पर प्रथमतः देशवासियों, विशेषतः हिंदीप्रेमियों, के प्रति शुभेच्छा संदेश देना चाहता हूं ।

असल में आज हिंदी का जन्मदिन है बतौर राजभाषा के । अन्यथ हिंदी भाषा तो सदियों से अस्तित्व में है । आज के दिन 61 साल पहले उसे राजभाषा होने का गौरव मिलाए और इसी अर्थ उसका जन्मदिन है । उसे वैधानिक सम्मान तो मिला, किंतु ‘इंडियन’ प्रशासनिक तंत्र से वह सम्मान नहीं मिला जो राजभाषा घोषित होने पर मिलना चाहिए था । यह कमोबेश वहीं की वहीं है । और रोजमर्रा के जीवन में उसका जितना भी प्रयोग देखने को मिल रहा है, वह राजभाषा के नाते कम है और जनभाषा होने के कारण अधिक है ।
आज हिंदी का सही माने में जन्मदिन है । जैसे जन्मदिन पर उत्सव का माहौल रहता है, संबंधित व्यक्ति को शुभकामनाएं दी जाती हैं, उसके दीर्घायुष्य की कामना की जाती है, इत्यादि, उसी भांति आज हिंदी का गुणगान किया जाता है, उसके पक्ष में बहुत कुछ कहा जाता हैं । उसके बाद सब कुछ सामान्य हो जाता है अगले जन्मदिन तक । जैसे जन्मदिन रोज नहीं मनाया जाता है, उसी प्रकार हिंदी की बात रोज नहीं की जाती है । उसकी शेष चिंता अगले हिंदी दिवस तक भुला दी जाती है । लोग रोज की तरह ‘जन्मदिन’ मनाकर सामान्य जीवनचर्या पर लौट आते हैं ।

आज के बुद्धिजीवियों के द्वारा वार्तापत्रों/पत्रिकाओं में हिंदी को लेकर भांति-भांति के उद्गार व्यक्त किए जाते हैं । मेरे पास प्रातःकाल हिंदी के दो दैनिक समाचारपत्र आते हैं, दैनिक हिन्दुस्तान एवं अमर उजाला । मैंने हिंदी से संबंधित उनमें क्या छपा है, इसे देखना/खोजना आरंभ किया । आज के हिन्दुस्तान समाचारपत्र के संपादकीय पृष्ठ पर छपे एक व्यंगलेख ने मेरा ध्यान सर्वाधिक खींचा । उसमें लिखा थाः

“… आज पूज रहे हैं, दिवस मना रहे हैं । कल एक पुरानी पोथी की तरह कपड़े में लपेटकर ऊंचे पर रख देंगे । …”

यह वाक्य कटु वास्तविकता का बखान करता है, जैसा में पहले ही कह चुका हूं । इसी पर आधारित मैंने इस लेख का भी शीर्षक चुना है ।

इसी पृष्ठ पर 75 साल पहले के समाचार का भी जिक्र देखने को मिला, जिसमें तत्कालीन राजकीय निर्णय का उल्लेख थाः “… सिक्कों पर केवल अंग्रेजी (रोमन) एवं उर्दू (अरबी) लिपि ही रहेंगी ।…” अर्थात् देवनागरी लिपि की तब कोई मान्यता ही नहीं थी ।

उक्त समाचारपत्र के अन्य पृष्ठ पर “हिंदी के आईने में कैसी दिखती है हमारी युवा पीढ़ी” नाम का एक लेख भी पढ़ने को मिला । इसमें महाविद्यालय/विश्वविद्यालय स्तर के छात्रों का हिंदी संबंधी ज्ञान की चर्चा की गयी है । ‘किडनी’ जैसे अंग्रेजी शब्दों, ‘पानी-पानी होना’ जैसे मुहावरों, ‘हजारी प्रसाद द्विवेदी’ जैसे लेखकों आदि के बारे में छात्रों से जानकारी ली गयी थी । कइयों के उत्तर भाषाई स्थिति की भयावहता का दर्शन कराते हैं । उनका ज्ञान नैराश्यजनक है ।

इस समाचारपत्र में एक स्थान पर सिनेमा एवं टीवी क्षेत्र की कुछ हस्तियों के हिंदी संबंधी विचारों का भी उल्लेख किया गया है । देखिए क्या कहा उन लोगों ने
“आवाम से बात हिंदी में होगी” – महमूद फारूकी
“मैं ख्वाब देखूं तो हिंदी में, मैं ख्याल यदि सोचूं तो हिंदी में” – कैलाश खेर
“हिंदी को प्राथमिक और अंग्रेजी को गौण बनाकर चलें” – रिजवान सिद्दीकी
“मैं उसकी काउंसिलिंग करना चाहूंगा जो कहता है हिंदी में करियर नहीं” – खुराफाती नितिन
“हिंदी बढ़ा देती है आपकी पहुंच” – अद्वैत काला
“बिना हिंदी सीखे नहीं चला काम” – कैटरीना कैफ
“हिंदी ने ही मुझे बनाया” – शाहरूख खान
“टीवी में हिंदीभाषियों के लिए मौके ही मौके” – साक्षी तंवर
“हिंदी तरक्की की भाषा है” – प्रकाश झा
“मेरे सपनों की भाषा है हिंदी” – आशुतोष राणा
“अनुवाद से लेकर अभिनय, सबमें हिंदी ने दिया सहारा” – सुशांत सिंह


इन लोगों के उद्गार उनकी वास्तविक सोच का ज्ञान कराती हैं, या ये महज औपचारिकता में बोले गये शब्द हैं यह जान पाना मेरे लिए संभव नहीं । कम ही विश्वास होता है कि वे सब सच बोल रहे होंगे । फिर भी आशुतोष राणा एवं एक-दो अन्य जनों के बारे में सच होगा यह मानता हूं ।

मेरे दूसरे समाचारपत्र अमर उजाला में काफी कम पाठ्य सामग्री मुझे पढ़ने को मिली । उसमें कही गयी एक बात अवश्य आशाप्रद और जमीनी वास्तविकता से जुड़ी लगती है मुझे । लेखक ने श्री अन्ना के हालिया आंदोलन का जिक्र करते हुए इस बात को रेखाकिंत किया है कि अंग्रेजी की जितनी भी वकालत ‘इंडियन’ बुद्धिजीवी करें, हकीकत यह है कि आम आदमी को वांछित संदेश तभी पहुंचता है जब बात जनसामान्य की जुबान में कही जाती है । हिंदी ऐसी सर्वाधिक बोली/समझी जाने वाली जुबान है । यह वह भाषा है जो देश के अधिकांश क्षेत्रों में समझी जाती है । अन्य स्थानों पर भी समझने वाले मिल जाएंगे और उनकी संख्या बढ़ रही है । गैरहिंदीभाषी क्षेत्रों के कई लोग हिंदी कुछ हद तक इसलिए भी समझ लेते हैं कि उनकी अपनी भाषा का हिंदी से काफी हद तक साम्य है, भले ही वे बोल न सकें ।  आसाम, उड़ीसा, गुजरात, महाराष्ट्र ऐसे ही क्षेत्र हैं । अंग्रेजी के संबोधनों और लेखों के पाठक आम आदमी नहीं होते हैं, अतः बातें सीमित दायरे में और आम आदमी की पहुंच से बाहर रह जाती हैं । अन्ना जी का अंग्रेजी ज्ञान नहीं के बराबर है, फिर भी मराठी पुट के साथ हिंदी में कही गयी उनकी बातें जनमानस तकपहुंच सकीं । इस तथ्य को हमारे राजनेता बखूबी जानते हैं । तभी तो वे चुनावी भाषण हिंदी या क्षेत्रीय भाषा में देते हैं, शायद ही कभी अंग्रेजी में । (एक सवालः अन्ना के बदले अण्णा क्यों नहीं लिखते हिंदी पत्रकार ? मराठी में तो उसकी वर्तनी यही है !)

अमर उजाला के संपादकीय पृष्ठ पर हिंदी के राजभाषा बनाए जाने और 1950 की 14 सितंबर की तारीख पर उसके सांविधानिक मान्यता पाने के बारे में भी संक्षिप्त लेख छपा है । अन्य लेख में नौकरशाही पर उनकी अंग्रेजी-भक्ति पर कटाक्ष भी है । श्री मणिशंकर अय्यर का दृष्टांत देते हुए उनकी अंग्रेजीपरस्त सोच की चर्चा की है । दरअसल इस देश की नौकरशाही ही है जो हिंदी को दस्तावेजी भाषा बनने में अड़ंगा लगाती आ रही है । निराशा तो इस बात को देखकर होती है कि जो युवक हिंदी माध्यम से प्रशासनिक सेवाओं में नियुक्ति पाते हैं वे भी हीन भावना से ग्रस्त होकर शनैःशनैः अंग्रेजियत के रंग में रंग जाते हैं । वे क्या कभी स्वयं को एवं देशवासियों को इस भ्रम से मुक्ति दिला पाएंगे कि विश्व में सर्वत्र अंग्रेजी ही चलती है । इस देश में जैसा अंग्रेजी-मोह देखने को मिलता है वैसा किसी भी प्रमुख देश में देखने को नहीं मिलता है । भ्रमित नौकरशाही को अंग्रेजी की व्यापकता के अज्ञान से मुक्ति मिले यही मेरी प्रार्थना है ।

मुझे दो-चार दिन पहले एक ई-मेल से इंटरनेट लिंक मिला था, जो एक लेख पर मुझे ले गया जिसमें अंग्रेजी से इतर विश्व की उन भाषाओं का जिक्र है जिन्हें व्यावसायिक कार्य में लिया जाता है । भारतीय भाषाओं में से कोई भी दी गयी सूची में शामिल नहीं है । इस बारे दो-चार शब्द लिखने का मेरा विचार था, लेकिन अब उस पर अगले लेख में ही कुछ बोलूंगा । -योगेन्द्र जोशी

 

राष्ट्र संघ आधिकारिक भाषा दिवस

इसी वर्ष (2010) संयुक्त राष्ट्र संघ (UNO) ने अपनी 6 आधिकारिक भाषाओं (official languages) के नाम पर ‘दिवस’ घोषित किये हैं । (देखें http://www.un.org/apps/news/story.asp?NewsID=34469&Cr=multilingual&Cr1=) ये दिवस इस प्रकार हैं:

1. अरबी भाषा दिवस Arabic Language Day (दिसम्बर 18 December) | सन्1973 की इसी तिथि पर अरबी भाषा को संयुक्त राष्ट्र संघ की छःठी आधिकारिक भाषा (Official Language) की मान्यता दी गयी थी ।
2. चीनी भाषा दिवस Chinese Language Day (अप्रैल 20 April) । चीनी चांद्रमास के अनुसार यह दिन चीन में ‘अन्न दिवस’ (Day of Grain) के तौर पर मनाया जाता है ।
3. अंग्रेजी भाषा दिवस English Language Day (अप्रैल 23 April) | यह दिन प्रसिद्ध अंग्रेजी नाट्यकार विलियम शेक्सपियर (William Shakespeare) के जन्मदिन के तौर जाना जाता है ।
4. फ़ांसीसी भाषा दिवस French Language Day (मार्च 20 March) | संयोग से यह दिन फ़्रांसीसी-प्रेमियों और फ़ांसीसी भाषा का मानवीय मूल्यों के संवर्धन में योगदान के नाम पर बने उनके संगठन ‘ला फ़्रांकोफ़ोनी’ (La Francophonie) का स्थापना दिवस है ।
5. रूसी भाषा दिवस Russian Language Day (जून 6 June) । यह दिन अलेक्ज़ांडर पुश्किन (Aleksander Pushkin), जिन्हें रूसी साहित्य के जनक के तौर पर देखा जाता है, का जन्मदिन है ।
6. स्पेनी भाषा दिवस Spanish Language Day (अक्टूबर 12 October) । यह स्पेन का राष्ट्रीय दिवस तथा स्पेनी भाषा-संस्कृति मानने वाली अन्यत्र वसी बिरादरी (Hispaniards) के दिवस के तौर पर जाना जाता है ।

संघ के महासचिव ने पहली बार मनाये गये ‘अंग्रेजी दिवस’ – 23 मार्च – के अवसर पर शेक्सपियर के शब्दों, `a feast of languages’ (भाषाओं का भोज, विविध भाषाओं की दावत), को उद्धरित करते हुए इन दिवसों की अहमियत को रेखांकित किया था । बहुभाषाभाषी इस विश्व में सभी भाषाओं को सम्मान मिले, और संघ के कार्यों में उक्त सभी भाषाएं समान रूप से प्रयुक्त हों यह संघ का प्रयास रहेगा ऐसी भावना इन दिवसों से जुड़ी है ।
अंग्रेजी के संदर्भ में मुझे एक वेबसाइट पर यह भी पढ़ने को मिला हैः “13 अक्टूबर 1362 में इंग्लैंड के ‘चांसलर’ ने पार्लियामेंट का उद्घाटन पहली बार अंग्रेजी भाषा में किया । सभा के उसी सत्र में विधि-नियमों और विधिक कार्यों के लिए सभा-सदस्यों को अंग्रेजी के प्रयोग की अनुमति दी गई । इस दिन को ‘अंग्रेजी भाषा दिवस’ (English Language Day) माना जाता है ।” लेकिन राष्ट्र संघ का घोषित अंग्रेजी दिवस इससे भिन्न है । (देखें http://www.englishproject.org/index.php?option=com_content&view=article&id=592&Itemid=472)

दिवसों की भरमार

पिछले कुछ दशकों से दिवसों का चलन बढ़ गया है । मानव समाज की हर समस्या की ओर ध्यानाकर्षण के लिए नये-नये दिवस घोषित किये जा रहे हैं । उपर्युक्त दिवस उसी फैशन की नई बानगी हैं । अब देखिए इसी माह (सितंबर) के उन दिवसों की सूची जिनकी जानकारी मुझे मिल सकी है:
(अंतर० = अंतरराष्ट्रीय; Intl. = International)

8 Intl. Literacy Day अंतर० साक्षरता दिवस
11 World First Aid Day विश्व प्राथमिक चिकित्सा दिवस
14 Intl. Cross-Cultural Day अंतर० मिश्रसंस्कृति दिवस
15 Intl. Day of Democracy अंतर० लोकतंत्रता दिवस
3rd Tuesday Intl. Day of Peace अंतर० शांति दिवस
16 Intl. Day for Ozone Preservation अंतर० ओजोन संरक्षण दिवस
20 Intl. Car Free Day अंतर० कारमुक्त दिवस
21 World Alzheimer’s Day अंतर० अल्जाइमर दिवस
21 Intl. Day of Peace अंतर० शान्ति दिवस
23 World Deaf Day विश्व बधिर दिवस
27 World Tourism Day विश्व पर्यटन दिवस
28 World Heart Day विश्व हृदय दिवस
28 World Rabies Day विश्व रेबीज़ दिवस

अस्तु, ये हैं विश्व दिवस । राष्ट्रीय स्तर के दिवस, जो भी हों, अतिरिक्त हैं । इसी माह 5 तारीख ‘शिक्षक दिवस’ मनाया जा चुका है । 14 तारीख हिंदी दिवस है ही । इसी वर्ष कुछ पर्यावरणविदों और उत्साही नागरिकों ने ‘हिमालय दिवस’ भी मनाया है, 9 तारीख, हिमालय क्षेत्र के बिगड़ते पर्यावरण के प्रति सरकार एवं आम जनों का ध्यान आकर्षित करने के उद्येश्य से । अब भविष्य में यह भी मनाया जाएगा । (http://www.thaindian.com/newsportal/enviornment/environmentalists-observe-himalaya-day_100425964.html)

दिवसों की अहमियत

हमारे देश में त्यौहारों-पर्वों के रूप में अनगिनत ‘दिवस’ मनाने की परंपरा चली आ रही है । इनका उद्येश्य समझ में आता हैः जीवन के प्रतिदिन के कार्यव्यापार से हटकर मनोरंजन एवं सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्कों का प्रयोजन इनमें निहित रहता है । ईद-दीवाली, बीहू-बैशाखी एवं अन्य धार्मिक पर्व इस श्रेणी में आते हैं । अपने यहां दिवंगत महापुरुषों के जन्मदिनों की भी भरमार है, जैसे बुद्ध, गांधी, नेहरु, अंबेडकर जयंतियां । बीते वर्षों में गुजरते समय के साथ नये-नये दिवस इस श्रेणी में जुड़ते चले गये हैं । कुछ दिवसों पर कार्यालयिक छुट्टी होती है, तो कुछ पर विविध आयोजन । मदर्स डे, फ्रेंड्ज डे, वैलंटाइन डे, न्यू इयर्स डे जैसे दिन भी हाल के वर्षों में दिवसों की सूची में जुड़ चुके हैं । इन पर अवकाश भले ही न हो, लोगों का जोश देखने योग्य होता है । इन सब का महत्त्व व्यक्तियों अथवा समुदाय-विशेषों के लिए ही अधिक है ।
हाल के वर्षों में सामाजिक सरोकारों तथा पर्यावरण से संबद्ध दिवस सूची में और जुड़ चुके हैं, जो अधिकतर वैश्विक स्तर के हैं । ये ही वे दिवस हैं जो जाति, धर्म, क्षेत्र से परे राष्ट्रीय अथवा अंताराष्ट्रीय अहमियत रखते हैं । शिक्षा, स्वास्थ्य, पर्यावरण आदि से जुड़े दिवस अपना अलग महत्त्व रखते हैं, जैसे अंताराष्ट्रीय ‘पृथ्वी दिवस’ (22 अप्रैल), ‘पर्यावरण दिवस’ (5 जून), ‘जनसंख्या दिवस’ (11 जुलाई), ‘भ्रष्टाचार निवारण दिवस’ (9 दिसंबर), आदि । मुझे शंका है कि इनमें से कइयों का अखबारों में जिक्र तक नहीं होता है । ये वे दिवस हैं, जब रस्मअदायगी से आगे बढ़कर कुछ कर गुजरने का संकल्प नागरिकों को लेना होता है । ये दिन हैं जब मुद्दों पर संजीदा हुआ जाना चाहिए । अगर ऐसा नहीं होता है तो फिजूल है उस दिवस का मनाया जाना । हिंदी दिवस ऐसा ही एक दिवस है ।

हिंदी दिवसः खो चुकी अहमियत

“… राजभाषा समिति की बैठक में हिंदी की जगह अंग्रेजी की उपस्थिति पर न केवल हंगामा हुआ, बल्कि भाजपा सदस्यों ने तो अंग्रेजी दस्तावेज को फाड़ कर और बैठक का बहिष्कार कर विरोध भी दर्ज कराया। गृहमंत्री तो बैठक में आए ही नहीं। … बैठक उस समय हंगामे में डूब गई जब कुछ दस्तावेज हिंदी के बजाय अंग्रेजी में पेश किए गए। … सदस्यों ने याद दिलाया कि राजभाषा अधिनियिम की धारा 3 [3] के तहत हिंदी में दस्तावेज होना जरूरी है, अधिकारी ने जवाब दिया कि यह उनके मंत्रालय पर लागू नहीं होता। … समिति के अध्यक्ष होने के बावजूद गृहमंत्री पी. चिदंबरम बैठक में आए ही नहीं। पिछले साल बैठक में वह आए थे तो उन्होंने भाषण अंग्रेजी में दिया था।” (स्रोत: http://in.jagran.yahoo.com/news/national/politics/5_2_6709123.html)

समाचार यहां भी पढ़ सकते हैं: http://epaper.amarujala.com/svww_index.php

उक्त समाचार साफ दिखलाता है कि बतौर राजभाषा के हिंदी के प्रति देश की नौकरशाही का क्या रवैया है । अंग्रेजी के वर्चस्व को कैसे बनाये रखा जाए और उसके लिए क्या-क्या बहाने रचे जाएं इसे आप उनसे सीख सकते हैं । निर्लज्ज अधिकारियों का ढीठपन देखिए, कहते हैं: “राजभाषा अधिनियम की धारा 3(3) उनके मंत्रालय पर लागू नहीं होती है, गोया कि उनका मंत्रालय अपवाद है और संविधान ने कुछ मंत्रालयों को राजभाषा न इस्तेमाल करने की छूट दे रखी है ।” अवश्य ही सुप्रीम कोर्ट (उच्चतम न्यायालय?) एक हास्यास्पद अपवाद है, जिसके लिए केवल अंग्रेजी ही मान्य है! दुर्भाग्य से देश का प्रबंधन जनसंख्या के शीर्ष पर बैठी 10% से कम जिस अभिजात वर्ग के हाथ में है उसे यह हरगिज बर्दास्त नहीं है कि भारतीय भाषाओं के ऊपर अंग्रेजी का वर्चस्व घटे । इस वर्चस्व को बनाये रखने के लिए वे हर मुमकिन कोशिश करने को तैयार हैं । अगर वे ऐसा न करें तो अंग्रेजी के कारण जिस लाभ की स्थिति में वे हैं वह नहीं रहेगी । कोई भी चालाक व्यक्ति और व्यक्ति-समूह अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी नहीं मार सकता ।

मुझ जैसे लोगों के लिए यह एक पीड़ादायक तथ्य है कि अपना देश हिंदुस्तान एक बुरी तरह विभाजित समाज है । यहां एक नहीं कई विभाजक कारक हैं: जाति, धर्म, क्षेत्र, आर्थिक संपन्नता तो हैं ही, उन सब के ऊपर है अंग्रेजी – अंग्रेजी जिसने एक ही राष्ट्र को ‘इंडिया और भारत’ में बांट रखा है । पूरी प्रशासनिक व्यवस्था इंडिया के हाथ में है, जो अंग्रेजी के वर्चस्व का घोर पक्षधर है ।

निस्संदेह हिंदी आम बोलचाल की भाषा है; दिल्ली के सचिवालय के गलियारों में भी यही बोली जाती है । आगे भी बोली जाएगी, भले ही ऐसा उसके वर्णसंकर अवतार ‘हिंग्लिश’ के रूप में हो । बोलचाल में वह विस्तार भी पा रही है, और देश के कोने-कोने में पहुंच भी रही है । किंतु उसके आगे बढ़कर वह दस्तावेजी भाषा नहीं बन सकती है । इसीलिए वह असल राजभाषा नहीं बन सकती, भले ही राजभाषा का ‘खिताब’ इसे मिला हो ! … कभी भी नहीं ।
तब फिर हिंदी दिवस की अहमियत क्या है? किसे याद दिलाने के लिए है यह दिवस ?

अंत में

राजभाषा संसदीय समिति का अध्यक्ष केंद्र सरकार के गृहमंत्री हुआ करते हैं – पदेन । अपने गृहमंत्री हिंदी नहीं जानते हैं – शायद बिल्कुल नहीं जानते हैं, और न ही जानने की इच्छा रखते हैं । यों तो सरकार चलाने वाले शीर्ष स्तर के राजनेता और प्रशासनिक अधिकारियों को हिंदी में कोई दिलचस्पी नहीं रहती है, भले ही वे हिंदीभाषी क्षेत्र के ही क्यों न हों, भले ही उनकी घोषित मातृभाषा हिंदी ही क्यों न हो । उन्हें हिंदी से अघोषित परहेज दृ सख्त लहजे में कहूं तो विरोध – रहता ही रहता है । फिर भी हिंदी दिवस जैसे मौके पर वे हिंदी में बोलने की रस्मअदायगी करते ही हैं । किंतु तमिलनाडु के राजनेता (आम आदमी उतना नहीं!) हिंदी से कतराते जरूर हैं । परहेज रखना शायद उनकी राजनीतिक विवशता है । दरअसल तथाकथित ‘द्रविड़’ पार्टियों के जन्म एवं उत्थान का आधार ही हिंदी विरोध रहा है । उन्हें यह विरोध बरकरार रखना है । इस हालत में कांग्रेस जैसी पार्टियां यह साहस नहीं दिखा सकती हैं कि वे हिंदी के पक्ष में नजर आवें । हिंदी के प्रति असली या नकली विरोध उन्हें भी दिखाना ही होता है । इस कारण से हिंदी का ‘मूक’ विरोध करना अपने गृहमंत्री की मजबूरी है । मैंने अभी तक कोई ‘तमिल’ राजनेता नहीं देखा है, जिसने कभी भी दो शब्द हिंदी में बोले हों । – योगेन्द्र जोशी

आज हिंदी दिवस है, 14 सितंबर ।

सर्वप्रथम मैं हिंदी-प्रमियों के प्रति अपनी शुभकामना व्यक्त करता हूं कि उनका भारतीय भाषाओं के प्रति लगाव बना रहे और यह भी कि वे अपने भाषाई प्रयासों में सफल होवें ।

तारीख के हिसाब से कोई 60 साल पहले आज ही के दिन देश में सर्वाधिक बोली/समझी जाने वाली भाषा हिंदी को राजभाषा की उपाधि दी गयी थी । रस्मअदायगी के तौर पर इस दिन उच्चपदस्थ लोग, चाहे वे राजनीति में हों या प्रशासन में अथवा अन्य व्यावसायिक क्षेत्रों में, यह कहते हुए सुने जाएंगे कि हमें राजभाषा हिन्दी अपनानी चाहिए । किसको अपनानी चाहिए हिंदी और किस क्षेत्र में और किस रूप में यह वह स्पष्ट नहीं कहते हैं । ऐसा लगता है कि वे आम आदमी को नसीहत देना चाहते हैं कि वह हिंदी को यथासंभव अधिकाधिक इस्तेमाल में ले । लेकिन वे स्वयं इसके इस्तेमाल की जिम्मेदारी से मुक्त रहना चाहते हैं और अंगरेजी के सापेक्ष वस्तुस्थिति को यथावत् बनाये रखने के पक्षधर हैं ।

हिंदी के राजभाषा बनाए जाने के औचित्य पर मुझे सदा ही शंका रही है । सैद्धांतिक तौर पर हिंदी के पक्ष में आरंभ में जो तर्क दिये गये थे वे निराधार तथा असत्य थे यह मैं नहीं कहता । किंतु तथ्यात्मक तर्क ही पर्याप्त नहीं माने जा सकते हैं । वास्तविकता के धरातल पर वे तर्क स्वीकार किये जा रहे हैं या नहीं, हामी भर लेने के बावजूद उनके अनुरूप कार्य हो रहा है कि नहीं, नीति-निर्धारण और कार्यान्वयन के लिए जिम्मेदार लोग रुचि लेते हैं या नहीं जैसी बातें अधिक महत्त्व रखते हैं । अपनी बात मैं यूं स्पष्ट करता हूं: आप सिगरेट के किसी लती को सलाह दें कि उसका धूम्रपान करना नुकसानदेह है और वह आपकी बात मानते हुए कहे कि ‘लेकिन मैं फिर भी सिगरेट पीना नहीं छोड़ सकता’ तो आप क्या करेंगे ? आप कहेंगे कि कोई न कोई रास्ता तो खोजा ही जाना चाहिए । एक व्यक्ति को रास्ते पर लाने के लिए तरह-तरह के नुस्खे अपनाये जा सकते हैं, समझाया-बुझाया जा सकता है, जोर-जबरदस्ती की जा सकती है, डराया-धमकाया जा सकता है, इत्यादि, और अंततः सफलता मिल भी सकती है । किंतु ऐसा कोई रास्ता समूचे देश के लिए संभव नहीं है । किसी दिशा में अग्रसर होने की सन्मति यदि लोगों में आ जाये तो ठीक, अन्यथा सब भगवान् भरोसे । राजभाषा हिंदी के मामले में स्थिति कुछ ऐसी ही है ।

यदि अपने देशवासी किसी न किसी बहाने अंगरेजी का प्रयोग यथावत् बनाये रखना चाहें तो फिर इस राजभाषा का अर्थ ही क्या है ? जब मैं अपने देश की तुलना विश्व के अन्य प्रमुख देशों से करता हूं तो पाता हूं कि अपना देश है ही विचित्र, सबसे अजूबा, विरोधाभासों और विसंगतियों से परिपूर्ण । यह विचित्रता सर्वत्र व्याप्त है, किंतु यहा पर इसका उल्लेख अपनी देसी भाषाओं के संदर्भ में ही कर रहा हूं । हम यह मानते है कि हमारी भाषाएं सुसंपन्न हैं, किंतु उन्हें लिखित रूप में प्रयोग में न लेकर केवल बोले जाने तक सीमित रखना चाहते हैं । क्यों ? इसका संतोषप्रद उत्तर किसी के पास नहीं, कदाचित् एक प्रकार का जड़त्व हमें घेरे हुए है कि सार्थक परिवर्तन करने को हम उत्सुक और प्रयत्नशील नहीं हैं, न ऐसा होना चाहते हैं ।

इसमें दो राय नहीं है कि हमारे रोजमर्रा के जीवन में प्रायः सर्वत्र हिंदी अथवा अन्य क्षेत्रीय भाषाएं ही बोली जाती हैं, चाहे बाजार में खरीद-फरोख्त का काम हो या पड़ोसी के हालचाल पूछने का या फोन पर किसी नाते-रिस्तेदार से बात करने का । यहां तक कि अंगरेजी स्कूलों में पढ़ रहे बच्चे भी स्कूल आते-जाते परस्पर अपनी देसी भाषा में ही बोलते दिखते हैं । कार्यालयों में अधिकांशतः सभी स्थानीय भाषा में ही सामान्य वार्तालाप करते हुए पाये जायेंगे । अपवादों को छोड़ दें । राजनीतिक क्षेत्र में तो जनता के सामने बातें क्षेत्रीय भाषाओं में ही रखी जाती हैं । किंतु जैसे ही कहीं कोई औपचारिक बात हो, हम तुरंत ही अंगरेजी में उतर आते हैं । अपनी बात स्थानीय भाषा में कहेंगे जरूर, किंतु उसी को जब लिखित रूप में व्यक्त करना हो तो अंगरेजी हमारी प्राथमिकता बन जाती है । तब हिंदी या अन्य देसी भाषा का प्रयोग समाज के निम्नतम वर्ग या अंगरेजी न पढ़े-लिखे लोगों तक रह जाता है । जिसको थोड़ी भी अंगरेजी आती है वह अपनी भाषाओं में लिखकर कुछ कहने को तैयार नहीं । चाहे रेलयात्रा का आरक्षण हो या बैंकों में कारोबार करने का या अपने ही क्षेत्र का पता चिट्ठी पर लिखने का, सर्वत्र अंगरेजी ही देखने को मिलेती है, कुछ अपवादों को छोड़कर ।

निःसंदेह बोलचाल में हिंदी का प्रयोग देश भर में बढ़ा है । देश के किसी कोने में जाइये रिक्शा-ऑटों वालों से, चाय वालों से, सामान्य दर्जे के होटल वालों से हिंदी में बात करना अधिक सुविधाजनक सिद्ध होता है ऐसा मैंने देशाटन में अनुभव किया है । किंतु इतना सब कुछ होते हुए भी लिखित रूप में हिंदी शायद ही कहीं दिखाई देती है सभी सार्थक जानकारी अंगरेजी में ही लिखित आपको मिलेगी भले ही जनसामान्य के उस जानकारी का हिंदी अथवा क्षेत्रीय भाषा में उपलब्ध होना अधिक लाभप्रद क्यों न हो । मैं उदाहरण पेश करता हूं । मेरी बातें मुख्यतः हिंदीभाषी क्षेत्रों पर लागू होती हैं ।

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पिछले कुछ समय से मैं एक प्रश्न का ‘संतोषप्रद’ उत्तर (महज उत्तर नही, संतोषप्रद उत्तर!) पाने की चेष्टा कर रहा हूं । हमारे संविधान निर्माताओं ने हिंदी को देश की राजभाषा घोषित किया । क्या सोचकर किया इसे तो ठीक-ठीक वही समझते रहे होंगे । आज हम इसलिए-उसलिए कहते हुए तब के सोचे गये कारणों की व्याख्या अवश्य कर सकते हैं । परंतु क्या कारणों को समझ लेना ही पर्याप्त है ? हममें से अधिकांश जन यही कहेंगे कि हिंदी को राजभाषा तो होना ही चाहिए था, और इसलिए वह राजभाषा मानी भी गयी । परंतु क्या वह वास्तव में राजभाषा बन सकी है या राजभाषा उसके लिए एक अर्थहीन उपाधि बनकर रह गयी है ? क्या वह बतौर राजभाषा प्रयुक्त हो रही है ? मैं स्वयं से पूछता हूं कि क्या संविधान द्वारा हिंदी को ‘दी गई’ राजभाषा की उपाधि सार्थक है

मुझे उक्त प्रश्न का उत्तर नकारात्मक मिलता है । राजभाषा होने के क्या मतलब हैं, और हकीकत में जो होना चाहिए वह किस हद तक हो रहा है, इन बातों की समीक्षा की जानी चाहिए । आज हिंदी को राजभाषा घोषित हुए साठ वर्ष होने को हैं । आप कहेंगे साठ वर्ष बहुत नहीं होते हैं किसी राष्ट्र के जीवन में । लेकिन यह भी सच है कि इतना लंबा अंतराल कुछ कम भी नहीं होता है । बात यूं समझिएः पदयात्रा पर निकला व्यक्ति दिन भर में औसतन 20-25 किलोमीटर चल सकता है । 20-25 नहीं तो 15-20 कि.मी. ही सही, या थोड़ा और कम की सोचें तो 12-15 कि.मी. तो चलना ही चाहिए । हम उससे 9 दिन में हजार-पांचसौ कि.मी. की पदयात्रा की अपेक्षा नहीं कर सकते । लेकिन सौ-डेड़सौ की उम्मीद करना तो गैरवाजिब नहीं होगा न ? यदि ‘नौ दिन चले अढाई कोस’ वाली बात घटित हो रही हो, तो क्या संतोष किया जा सकता है ? अपनी राजभाषा का हाल कुछ ऐसा ही है । सो कैसे इसे स्पष्ट करने का विचार है मेरा इस और आगामी पोस्टों में ।

अपने अध्ययन तथा चिंतन (मेरा विश्वास है कि मैं कुतर्क नहीं कर रहा हूं) की बात करने से पहले में संविधान द्वारा राजभाषा घोषणा संबंधी कुछ शब्दों की चर्चा करना चाहता हूं । देश के संविधान में हिंदी को ‘संघ की राजभाषा’ घोषित किया गया है । संविधान सभा की बैठक सन् 1949 में 12 से 14 सितंबर तक चली थी, जिसमें संविधान को मौलिक तथा अंतिम रूप दे दिया गया और कालांतर में वह 26 जनवरी, 1950, से प्रभावी भी हो गया । उस बैठक के अंतिम दिन (14 सितंबर) काफी जद्दोजेहद के बाद संघ की भाषा के रूप में हिंदी को बहुमत से स्वीकार कर लिया गया । हिंदी को उस दिन मिली ‘राजभाषा’ की उपाधि और तत्पश्चात् अगले वर्ष (1950) की उसी तारीख से बतौर केंद्र सरकार के राजकाज की भाषा के रूप में हिंदी के प्रयोग के आरंभ की स्मृति में प्रत्येक वर्ष 14 सितंबर का दिन ‘हिंदी दिवस’ के रूप में मनाया भी जाता है । दिवस मनाने का यह सिलसिला तब से चला आ रहा है, कुछ हद तक साल दर साल घटते उत्साह के साथ और विशुद्ध औपचारिकता की भावना से !

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