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आज हिन्दी दिवस है, हिन्दी का राजभाषा के रूप में जन्म का दिन इस अवसर पर हिन्दी प्रेमियों तथा हिन्दी प्रयोक्ताओं के प्रति शुभेच्छाएं। हिन्दी की दशा सुधरे यही कामना की जा सकती है।

इस दिवस पर कहीं एक-दिनी कार्यक्रम होते हैं तो कहीं हिन्दी के नाम पर पखवाड़ा मनाया जाता है। इन अवसरों पर हिन्दी को लेकर अनेक प्रभावी और मन को आल्हादित-उत्साहित करने वाली बातें बोली जाती हैं, सुझाई जाती हैं। इन मौकों पर आयोजकों, वक्ताओं से लेकर श्रोताओं तक को देखकर लगता है अगले दिन से सभी हिन्दी की सेवा में जुट जाएंगे। आयोजनों की समाप्ति होते-होते स्थिति श्मशान वैराग्य वाली हो जाती है, अर्थात्‍ सब कुछ भुला यथास्थिति को सहजता से स्वीकार करते हुए अपने-अपने कार्य में जुट जाने की शाश्वत परंपरा में लौट आना।

इस तथ्य को स्वीकार किया जाना चाहिए कि जैसे किसी व्यक्ति के “बर्थडे” (जन्मदिन) मनाने भर से वह व्यक्ति न तो दीर्घायु हो जाता है, न ही उसे स्वास्थलाभ होता है, और न ही किसी क्षेत्र में सफलता मिलती है, इत्यादि, उसी प्रकार हिन्दी दिवस मनाने मात्र से हिन्दी की दशा नहीं बदल सकती है, क्योंकि अगले ही दिन से हर कोई अपनी जीवनचर्या पूर्ववत् बिताने लगता है।

मैं कई जनों के मुख से अक्सर सुनता हूं और संचार माध्यमों पर सुनता-पढ़ता हूं कि हिन्दी विश्व में फैल रही है, उसकी ओर लोग आकर्षित हो रहे हैं, उसे अपना रहे हैं। किंतु दो बातें स्पष्टता से नहीं कही जाती हैं:

(१) पहली यह कि हिन्दी केवल बोलचाल में ही देखने को मिल रही है, यानी लोगबाग लिखित रूप में अंग्रेजी विकल्प ही सामान्यतः चुनते हैं, और

(२) दूसरी यह कि जो हिन्दी बोली-समझी जाती है वह उसका प्रायः विकृत रूप ही होता है जिसमें अंग्रेजी के शब्दों की इतनी भरमार रहती है कि उसे अंग्रेजी के पर्याप्त ज्ञान के अभाव में समझना मुश्किल है।

कई जन यह शिकायत करते हैं कि हिन्दी में या तो शब्दों का अकाल है या उपलब्ध शब्द सरल नहीं हैं। उनका कहना होता है कि हिन्दी के शब्दसंग्रह को वृहत्तर बनाने के लिए नए शब्दों की रचना की जानी चाहिए अथवा उन्हें अन्य भाषाओं (अन्य से तात्पर्य है अंग्रेजी) से आयातित करना चाहिए। मेरी समझ में नहीं आता है कि उनका “सरल” शब्द से क्या मतलब होता है? क्या सरल की कोई परिभाषा है? अभी तक मेरी यही धारणा रही है कि जिन शब्दों को कोई व्यक्ति रोजमर्रा सुनते आ रहा हो, प्रयोग में लेते आ रहा हो, और सुनने-पढ़ने पर आत्मसात करने को तैयार रहता हो, वह उसके लिए सरल हो जाते हैं

उपर्युक्त प्रश्न मेरे सामने तब उठा जब मुझे सरकारी संस्था “वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली आयोग” से जुड़ा समाचार पढ़ने को मिला। दैनिक जागरण में छपे समाचार की प्रति प्रस्तुत है। समाचार के अनुसार आयोग “नए-नए शब्दों को गढ़ने और पहले से प्रचलित हिंदी शब्दों के लिए सरल शब्द तैयार करने के काम में जुटा है।”

आयोग जब सरल शब्द की बात करता है तो वह उसके किस पहलू की ओर संकेत करता है? उच्चारण की दृष्टि से सरल, या वर्तनी की दृष्टि से? याद रखें कि हिन्दी कमोबेश ध्वन्यात्मक (phonetic) है (संस्कृत पूर्णतः ध्वन्यात्मक है)। इसलिए वर्तनी को सरल बनाने का अर्थ है ध्वनि को सरल बनाना। और इस दृष्टि से हिन्दी के अनेक शब्द मूल संस्कृत शब्दों से सरल हैं ही। वस्तुतः तत्सम शब्दों के बदले तद्‍भव शब्द भी अनेक मौकों पर प्रयुक्त होते आए हैं। उदाहरणतः

आलस (आलस्य), आँसू (अश्रु), रीछ (ऋक्ष), कपूत (कुपुत्र), काठ (काष्ठ), चमार (चर्मकार), चैत (चैत्र), दूब (दूर्वा), दूध (दुiग्ध), धुआँ (धूम्र)

ऐसे तद्‍भव शब्द हैं जो हिन्दीभाषी प्रयोग में लेते आए हैं और जिनके तत्सम रूप (कोष्ठक में लिखित) शायद केवल शुद्धतावादी लेखक इस्तेमाल करते होंगे। हिन्दी के तद्‍भव शब्दों की सूची बहुत लंबी होगी ऐसा मेरा अनुमान है।

ऐसे शब्द हमारी रोजमर्रा की जिन्दगी के हिस्से हैं। किंतु अयोग के समक्ष समस्या इसके आगे विशेषज्ञता स्तर के शब्दों की रचना करने और उनके यथासंभव सरलीकरण की है। बात उन शब्दों की हो रही है जो भाषा में तो हों किंतु प्रचलन में न हों अतः लोगों के लिए पूर्णतः अपरिचित हों। अथवा वांचित अर्थ व्यक्त करने वाले शब्द उपलब्ध ही न हों। पहले मामले में उनके सरलीकरण की और दूसरे मामले में शब्द की नये सिरे से रचना की बात उठती है। यहां पर याद दिला दूं कि हमारे हिन्दी शब्दों का स्रोत संस्कृत है न कि लैटिन एवं ग्रीक जो अंग्रेजी के लिए स्रोत रहे हैं और आज भी हैं। अन्य भारतीय भाषाओं से शब्द ले सकते हैं, परंतु उनकी स्थिति भी हिन्दी से भिन्न नहीं है और वे भी मुख्यतः संस्कृत पर ही निर्भर हैं। हिन्दी पर अरबी-फारसी का काफी प्रभाव रहा है। लेकिन जिन शब्दों की तलाश आयोग को है वे कदाचित् इन भाषाओं में उपलब्ध नहीं है। यदि कोई शब्द हों भी तो वे भारतीयों के लिए अपरिचित-से होंगे। जब संस्कृत के शब्द ही कठिन लगते हों तो इन भाषाओं से उनका परिचय तो और भी कम है।

ले दे के बात अंग्रेजी के शब्दों को ही हिन्दी में स्वीकारने पर आ जाती है, क्योंकि अंग्रेजी स्कूल-कालेजों की पढ़ाई और व्यावसायिक एवं प्रशासनिक क्षेत्रों में अंग्रेजी के वर्चस्व के चलते हिन्दी एवं क्षेत्रीय भाषाएं महत्व खोती जा रही हैं। आज स्थिति क्या है इसका अंदाजा आप मेरे एक अनुभव से लगा सकते हैं –

एक बार मैं एक दुकान (अपने हिन्दीभाषी शहर वाराणसी का) पर गया हुआ था। मेरी मौजूदगी में ९-१० साल के एक स्कूली बच्चे ने कोई सामान खरीदा जिसकी कीमत दूकानदार ने “अड़तीस” (३८) रुपये बताई। लड़के के हावभाव से लग गया कि वह समझ नहीं पा रहा था कि अड़तीस कितना होता है। तब दूकानदार ने उसे बताया कि कीमत “थर्टि-एट” रुपए है। लड़का संतुष्ट होकर चला गया। मेरा मानना है कि ऐसी स्थिति अंग्रेजी माध्यम की स्कूली शिक्षा का परिणाम है। इस “अड़तीस” का भला क्या सरलीकरण हो सकता है?

जब आप पीढ़ियों से प्रचलित रोजमर्रा के हिन्दी शब्दों को ही भूलते जा रहे हों तो फिर विशेषज्ञता स्तर के शब्दों को न समझ पाएंगे और न ही उन्हें सीखने को उत्साहित या प्रेरित होंगे। तब क्या नये-नये शब्दों की रचना का प्रयास सार्थक हो पाएगा?

संस्कृत पर आधारित शब्द-रचना के आयोग के प्रयास लंबे समय से चल रहे हैं। रचे या सुझाए गये शब्द कितने सरल और जनसामान्य के लिए कितने स्वीकार्य रहे हैं इसे समझने के लिए एक-दो उदाहरण पर्याप्त हैं। वर्षों पहले “कंप्यूटर” के लिए आयोग ने “संगणक” गढ़ा था। लेकिन यह शब्द चल नहीं पाया और अब सर्वत्र “कंप्यूटर” शब्द ही इस्तेमाल होता है। इसी प्रकार “ऑपरेटिंग सिस्टम” (operating system)  के लिए “प्रचालन तंत्र” सुझाया गया। वह भी असफल रहा। आयोग के शब्दकोश में “एंजिनिअरिंग” के लिए “अभियांत्रिकी” एवं “एंजिनिअर” के लिए “अभियंता उपलब्ध हैं, किंतु ये भी “शुद्ध” हिन्दी में प्रस्तुत दस्तावेजों तक ही सीमित रह गए हैं। आयोग के ऐसे शब्दों की सूची लंबी देखने को मिल सकती है।

आयोग सार्थक पारिभाषिक शब्दों की रचना भले ही कर ले किंतु यह सुनिश्चित नहीं कर सकता है कि जनसामान्य में उनकी स्वीकार्यता होगी। शब्दों के अर्थ समझना और उन्हें प्रयोग में लेने का कार्य वही कर सकता है जो भाषा में दिलचस्पी रखते हों और अपनी भाषायी सामर्थ्य बढ़ाने का प्रयास करते हों। हिन्दी का दुर्भाग्य यह है कि स्वयं हिन्दीभाषियों को अपनी हिन्दी में मात्र इतनी ही रुचि दिखती है कि वे रोजमर्रा की सामान्य वार्तालाप में भाग ले सकें, वह भी अंग्रेजी के घालमेल के साथ। जहां कहीं भी वे अटकते हैं वे धड़ल्ले से अंग्रेजी शब्द इस्तेमाल कर लेते हैं इस बात की चिंता किए बिना कि श्रोता अर्थ समझ पाएगा या नहीं। कहने का मतलब यह है कि आयोग की पारिभाषिक शब्दावली अधिकांश जनों के लिए माने नहीं रखती है।

इस विषय पर एक और बात विचारणीय है जिसकी चर्चा मैं एक उदाहरण के साथ करने जा रहा हूं। मेरा अनुभव यह है कि किन्ही दो भाषाओं के दो “समानार्थी” समझे जाने वाले शब्द वस्तुतः अलग-अलग प्रसंगों में एकसमान अर्थ नहीं रखते। दूसरे शब्दों में प्रायः हर शब्द के अकाधिक अर्थ भाषाओं में देखने को मिलते हैं जो सदैव समानार्थी या तुल्य नहीं होते। भाषाविद्‍ उक्त तथ्य को स्वीकारते होंगे।

मैंने अंग्रेजी के “सर्वाइबल्” (survival)” शब्द के लिए हिन्दी तुल्य शब्द दो स्रोतों पर खोजे।

(१) एक है आई.आई.टी, मुम्बई, के भारतीय भाषा प्रौद्योगिकी केन्द्र (http://www.cfilt.iitb.ac.in/) द्वारा विकसित शब्दकोश, और

(२) दूसरा है अंतरजाल पर प्राप्य शब्दकोश (http://shabdkosh.com/)

मेरा मकसद था जीवविज्ञान के विकासवाद के सिद्धांत “survival of the fittest” की अवधारणा में प्रयुक्त “सर्वाइबल्” के लिए उपयुक्त हिन्दी शब्द खोजना।

पहले स्रोत पर केवल २ शब्द दिखे:

१. अवशेष, एवं २. उत्तरजीविता

जब कि दूसरे पर कुल ७ नजर आए:

१. अवशेष, २. अतिजीवन, ३. उत्तर-जीवन, ४. उत्तरजीविता, ५. जीवित रहना, ६. प्रथा, ७. बची हुई वस्तु या रीति 

जीवधारियों के संदर्भ में मुझे “अवशेष” सार्थक नहीं लगता। “उत्तरजीविता” का अर्थ प्रसंगानुसार ठीक कहा जाएगा ऐसा सोचता हूं। दूसरे शब्दकोश के अन्य शब्द मैं अस्वीकार करता हूं।

अब मेरा सवाल है कि “उत्तरजीविता” शब्द में निहित भाव क्या हैं या क्या हो सकते हैं यह कितने हिन्दीभाषी बता सकते हैं? यह ऐसा शब्द है जिसे शायद ही कभी किसी ने सुना होगा, भले ही भूले-भटके किसी ने बोला हो। जो लोग संस्कृत में थोड़ी-बहुत रुचि रखते हैं वे अर्थ खोज सकते हैं। अर्थ समझना उस व्यक्ति के लिए संभव होगा जो “उत्तर” एवं “जिविता” के माने समझ सकता है। जितना संस्कृत-ज्ञान मुझे है उसके अनुसार “जीविता” जीवित रहने की प्रक्रिया बताता है, और “उत्तर” प्रसंग के अनुसार “बाद में” के माने व्यक्त करता है। यहां इतना बता दूं कि “उत्तर” के अन्य भिन्न माने भी होते हैं: जैसे दिशाओं में से एक; “जवाब” के अर्थ में; “अधिक” के अर्थ में जैसे “पादोत्तरपञ्चवादनम्” (एक-चौथाई अधिक पांच बजे) में।

लेकिन एक औसत हिन्दीभाषी उक्त शब्द के न तो अर्थ लगा सकता है और न ही उसे प्रयोग में ले सकता है। ऐसी ही स्थिति अन्य पारिभाषिक शब्दों के साथ भी देखने को मिल सकती है।

संक्षेप मे यही कह सकता हूं कि चूंकि देश में सर्वत्र अंग्रेजी हावी है और हिन्दी के (कदाचित् अन्य देशज भाषाओं के भी) शब्द अंग्रेजी से विस्थापित होते जा रहे हैं अतः सरल शब्दों की रचना से कुछ खास हासिल होना नहीं है। – योगेन्द्र जोशी

 

PIDGIN –  A simple form of a language with elements taken from the local languages used for communication between people not sharing a common language. Origin: Chinese alteration for business.

CREOLE1 a person of mixed European and Black descent. 2 a descendent of European settlers in the Caribbians  or Central or South America. 3 a descendent of French settlers in the south of US. 4 a language formed with the combination of a European Language and an African Language.


पिजिन
‘पिजिन’ एवं ‘क्रिओल’ की ये परिभाषाएं कॉम्पैक्ट ऑक्सफर्ड रेफरेंस डिक्शनरी (Compact Oxford Reference Dictionary) से ली गयी हैं । अंतरजाल पर खोजने पर आपको इन शब्दों की व्याख्या अलग-अलग प्रकार से मिलेगी, लेकिन सभी का सार एक ही रहता है । देखने-पढ़ने के लिए संदर्भों की संख्या की कोई कमी नहीं हैं । मैंने निम्नलिखित को अधिक ध्यान से देखा था:

http://privatewww.essex.ac.uk/~patrickp/Courses/CreolesIntro.html
http://humanities.uchicago.edu/faculty/mufwene/pidginCreoleLanguage.html
http://logos.uoregon.edu/explore/socioling/pidgin.html

पिजिन (Pidgin) वस्तुतः एक मिश्रित बोली है । इसे भाषा कहना उचित नहीं होगा । जब ऐसे व्यक्ति-समूह परस्पर मिलते हैं जो एक-दूसरे की भाषा/बोली न जानते हों, किंतु उन्हें परस्पर व्यावसायिक/व्यापारिक संबंध स्थापित करने हों, तब कामचलाऊ बोली का जन्म होता है । दो या अधिक भाषाओं के शब्दों की खिचड़ी बोली जिससे परस्पर का कार्यव्यापार चल जाए वह पिजिन कहलाती है । बताया जाता है कि ‘पिजिन’ शब्द अंग्रेजी शब्द बिजनेस (business) का चीनी भाषा में रूपांतर है । शब्द की व्युत्पत्ति का खास इतिहास नहीं है । कहा जाता है कि पिजिन शब्द 1807 से प्रचलन में है ।

पिजिन बोलियों के इतिहास का यूरोपियों द्वारा अमेरिकी द्वीपों में उपनिवेश स्थापित करने से घनिष्ठ संबंध रहा है । स्थानीय जनसमुदायों के साथ काम भर का संपर्क स्थापित करने अथवा उनकी श्रमशक्ति का उपयोग करने के लिए ऐसी टूटी-फूटी बोली का प्रचलन हुआ । इतना ही नहीं, कई क्षेत्रों में कृषि एवं अन्य कार्यों के लिए वे लोग अपने साथ अफ्रिकी ‘गुलामों’ को भी ले गये । उनके साथ संवाद के लिए भी ऐसी बोली प्रचलन में आई । इन अवसरों पर ‘सभ्य’ कहे जाने वाले और समुन्नत भाषाओं के धनी यूरोपियों की उन श्रमिकों या ‘गुलामों’ की अपेक्षया अविकसित भाषा सीखने में स्वाभाविक तौर पर कोई दिलचस्पी नहीं रही होगी । दूसरी तरफ श्रमिकों/‘गुलामों’ में भी इतनी क्षमता कदाचित् नहीं रही होगी कि वे ‘मालिकों’ की भाषा को सरलता से अपना लें । दोनों प्रकार के समुदायों का परस्पर संपर्क केवल जरूरी कार्यव्यापार तक सीमित था जिसके लिए पिजिन से काम लेना पर्याप्त था । श्रमिक/‘गुलाम’ जब स्वयं ही अलग-अलग क्षेत्रों के मूल बाशिंदे होते थे, तब वे भी आपस में पिजिन का सहारा लेते थ और उस बोली में दो से अधिक भाषाओं/बोलियों के शब्द शामिल हो जाते थे । इन मिश्रित बोलियों को संबंधित भाषाओं के नाम से पुकारा जाने लगा, यथा पापुआ न्यू गिनी पिजिन जर्मन (Papua New Guinea Pidgin German ), कैमरून पिजिन इंग्लिश (English based Cameroon Pidgin) आदि ।

पिजिन बोली का कोई सुनिश्चित व्याकारणीय स्वरूप नहीं रहता । इसकी शब्दसंपदा बेहद कम और कामचलाऊ रहती है, जिसमें संबंधित भाषाओं के शब्द रहते हैं । आम तौर यूरोनीय भाषा के शब्द अधिक रहते हैं जब कि उनका उच्चारण, वाक्य में क्रम, आदि स्थानीय बोली पर अधिक आधारित रहते हैं । प्रमुख भाषा को उपरिस्तरीय (Superstrate) एवं गौण को अधोस्तरीय (Substrate) कहा जाता है । पिजिन का एक उदाहरण (उपर्युक्त किसी जालस्थल से लिया गया कैमरून पिजिन इंग्लिश) देखिए:
dis smol swain i bin go fo maket (दिस स्मोल स्वैन इ बिन गो फो माकेट) = this little pig went to market
पिजिन एवं क्रिओल (आगे देखें) का अध्ययन अपने देश में शायद नहीं होता है, किंतु यूरोप एवं अमेरिका के कुछ शिक्षण संस्थाओं के भाषा विभागों में इनके बारे में पढ़ाया जाता है (जैसे एसेक्स वि0वि0, ब्रिटेन, एवं शिकागो वि0वि0, अमेरिका) ।

क्रिओल
पिजिन की भांति क्रिओल भी एक मिश्रित या वर्णसंकर (Hybrid) बोली है । यों समझा जा सकता है कि जब पिजिन समय के साथ परिष्कृत होकर स्थायित्व धारण कर लेती है तो वही क्रिओल कहलाने लगती है । यह माना जाता है कि अफ्रिकी, अमेरिकी देशों के अपेक्षया पिछड़े जनसमुदायों की भाषा पर यूरोपीय भाषाओं के अत्यधिक प्रभाव से क्रिओलों का जन्म हुआ है । आरंभ में वे जनसमुदाय अपनी मूल भाषा का ही प्रयोग करते रहे, किंतु व्यापारिक/व्यावसायिक संपर्क के कारण पिजिन का प्रयोग भी साथ-साथ चलता रहा । कालांतर में आने वाली पीढ़ियां पिजिन के आदी होते चले गये । इस प्रक्रिया के फलस्वरूप ऐसी भाषा व्यवहार में आई जिसने एक स्पष्ट व्याकरणीय ढांचा इख्तियार कर लिया और जिसका एक अच्छा-खासा शब्दसंग्रह भी तैयार हो गया । संबंधित मूल भाषाओं के नामों पर आधारित क्रिओल संबोधन से यह भाषा पुकारी जाने लगी ओर उन लोगों की आम भाषा ही बन गयी ।

विषय के जानकारों के अनुसार क्रिओलों की शब्दसंपदा मुख्यतः बाहरी (यूरोपीय) भाषा पर आधारित रहती है जब कि वाक्यविन्यास स्थानीय भाषा पर । स्थानीयता शब्दों के स्वरूप एवं अर्थ को प्रभावित करती है । अंग्रेजी-आधारित जमैकी पिजिन में शब्द रचना का एक दृष्टांत देखें: हैन-मिगल् = हथेली (Han-migl = hand+middle = palm) ।
पापुआ न्यू गिनी में अंग्रेजी और स्थानीय भाषा से प्राप्त टोक पिसिन (Toke Pisin = Talk Pidgin?) नाम की क्रिओल राष्ट्रीय भाषा बन चुकी है और देश की ‘असेम्बली’ और रेडियो प्रसारण में प्रयुक्त होती है । इसका एक वाक्य यह है:

“Sapos yu kaikai planti pinat, bai yu kamap strong olsem phantom.”
(सापोस यू काइकाइ प्लान्टी पीनाट, बाइ यू कमअप स्ट्रॉंग ओल्सम फैंटम ।)
“If you eat plenty of peanuts, you will come up strong like the phantom.”

अमेरिका में लूसियाना क्रिओल प्रचलन में है, जो फ्रांसीसी एवं अफ्रिकन भाषाओं पर आधारित है । अन्य कुछ क्रिओल भाषाएं ये हैं: Haitian, Mauritian, and Seychellois (French based); Jamaican, Guyanese, and Hawaiian Creole  (English based); Cape Verdian Criolou (Portuguese based) and Papiamentu in the Netherlands Antilles (Portuguese based, Spanish influenced) |

हिंग्लिश
इस आलेख में मेरा मुख्य उद्येश्य है हिंग्लिश पर अपनी टिप्पणी प्रस्तुत करना । पिजिन एवं क्रिओल की संक्षिप्त परिचयात्मक चर्चा के पीछे प्रयोजन यह रहा है कि इनके सापेक्ष हिंग्लिश को तौला जा सके । मेरे विचार में स्वतंत्र इंडिया दैट इज भारत (ह्विच इट इज नॉट!) की एक बड़ी, किंतु नकारात्मक, उपलब्धि रही है हिंग्लिश की प्रतिष्ठापना । हिंग्लिश हिंदी एवं अंग्रेजी के घालमेल से बनी एक वर्णसंकर भाषा है, जिसके बीज तो अंग्रेजी राज में पड़ चुके थे, लेकिन जिसका विकास एवं अधिकाधिक प्रयोग स्वतंत्रता के बाद ही हुआ ।

मैं यह निश्चित नहीं कर पा रहा हूं कि हिंग्लिश को पिजिन कहा जाए या क्रिओल । पिजिनों/क्रिओलों के प्रचलन में आने की जिन परिस्थितियों की बात कही गयी है वे अवश्य ही हिंग्लिश पर लागू नहीं होती हैं । अंग्रेजी राज से पहले से जो भी भाषाएं इस भूभाग में प्रचलित रही हैं वे उच्च दर्जे की रही हैं और अभिव्यक्ति के स्तर पर वे यूरोपीय भाषाओं से कमतर नहीं मानी जा सकती हैं । यहां के लोग आवश्यकतानुसार अंग्रेजी तथा अन्य भाषाएं सीखने में समर्थ थे और उन्होंने उन्हें सीखा भी । फिरंगियों के समय में ऐसी परिस्थितियां नहीं थीं कि किसी पिजिन/क्रिओल की जरूरत रही हो । उनका राज यही के लोग चला रहे थे, जो अंग्रेजी के साथ एक (मातृभाषा) या अधिक भाषाएं बोल/लिख सकते थे । तब फिर हिंग्लिश की जरूरत क्यों पड़ी ? अंग्रेजी शासन चलाने में योगदान दे रहे वे लोग इतने सक्षम रहे कि वे इन भाषाओं को साफ-सुथरे रूप में प्रयोग में ले सकते थे । तो फिर हिंग्लिश तथा उसी तर्ज पर ‘बांग्लिश’, ‘कन्नलिश’, ‘गुजलिश’ जैसी वर्णसंकर भाषाओं का प्रचलन तेजी से क्यों बढ़ा ?
हिंग्लिश की बात तो मैंने कर दी पर यह स्पष्ट नहीं किया कि यह आखिर है क्या ? यह आज के हिंदुस्तान के शहरी पढ़े-लिखे लोगों के बीच पूर्णतः प्रचलित हो चुकी एक भाषा है जिसका व्याकरणीय ढांचा तो हिंदी का है, किंतु शब्दसंग्रह कमोबेश अंग्रेजी का है । यह उन लोगों की देन है जो चमड़ी के रंग से तो हिंदुस्तानी हैं, लेकिन जो दिल से अंग्रेज बन चुके हैं । ये वे लोग हैं जो भारतीय भाषाओं को केवल मजबूरी में ही प्रयोग में लेना चाहते हैं, जिन्हें मूल/मातृ- भाषा की शब्दसंपदा समृद्ध करने में कोई दिलचस्पी नहीं है, और जिनके मुख से मौके पर हिंदी का उचित शब्द नहीं निकल सकता है । हिंदी में अंग्रेजी के शब्दों को जहां तबियत हुई वहां ठूंस देने में उन्हें कोई हिचक नहीं होती है । उन्हें इस बात पर कोई कोफ्त अथवा लज्जा अनुभव नहीं होती कि वे अपनी ‘तथाकथित’ मातृभाषा में भी ठीक से नहीं बोल सकते, विचारों को व्यक्त नहीं कर सकते । वे इस बात की तनिक भी चिंता नहीं करते हैं कि जिससे वे बात कर रहे हैं उसके भेजे में उनकी यह नयी भाषा घुस भी पा रही कि नहीं । हिंदीभाषियों का बृहत्तर जनसमुदाय उनकी भाषा वस्तुतः नहीं समझ सकता । हिंग्लिश में व्यक्त इस कथन पर गौर करें:

“चीफ़-मिनिस्टर ने नैक्सलाइट्स को डायलॉग के लिए इंवाइट किया है । लेकिन नैक्सलाइट्स अन्कंडिशनल मीटिंग के लिए तैयार नहीं हैं । उनका कहना है कि सरकार कांबिग आपरेशन बंद करे और उन्हें सेफ पैसेज दे तो वे निगोशिएशन टेबल पर आ सकते हैं ।”

इस कथन को सड़क पर का आम आदमी (man on the street) क्या वास्तव में समझ सकता है ? उसे मालूम है कि कांबिग क्या होती है और निगोशिएशन किसे कहते हैं, आदि ? जरा सोचें ।

इस देश में अंग्रेजीपरस्त एक ऐसा वर्ग उभरा है जिस पर ‘सावन के अंधे को हरा ही हरा दिखता है’ की कहावत चरितार्थ होती है । निःसंदेह उसके पास अंग्रेजी शब्दों का अपार शब्दभंडार है, किंतु आम हिंदुस्तानी का हाथ तो अंग्रेजी में तंग ही है न । क्या कोई सोचेगा कि क्यों उसे अंग्रेजी के लिए मजबूर किया जाए, क्यों नहीं अंग्रेजीपरस्त ही अपनी हिंदी बेहतर कर लेते हैं, उस बेचारे की खातिर ? खैर, यह सब होने से रहा ।

हिंग्लिश को इंडिया की उदीयमान, तेजी से जड़ें जमाती, और लोकप्रिय होती जा रही क्रिओल भाषा के तौर पर देखा जाना चाहिए । जहां के लोग अब भारत नाम भूलते जा रहे हों और देश को इंडिया बनाने का ख्वाब देख रहे हों, वहां साफ-सुथरी हिंदी के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता है । दुर्भाग्य से वहां अंग्रेजी भी नहीं चल सकती है, क्योंकि अधिसंख्य जन उसमें बातचीत नहीं कर सकते हैं । ऐसे में हिंग्लिश क्रिओल ही उपयुक्त विकल्प रह जाता है ।

अस्तु, मैं इस पक्ष का हूं कि हिंग्लिश – एक प्रकार की क्रिओल – को अब मान्यता दे देनी चाहिए । यह अभिजात वर्ग के मुंह पर कब्जा कर चुकी है; अब यह दिन-ब-दिन मजबूत होने जा रही है । आखिर सोचिए उर्दू और हिंदी में अंतर ही कितना है ? जब उर्दू को अलग भाषा का दर्जा मिला हुआ है, तो ठीक उसी तरह – जी हां उसी तरह – हिंग्लिश को मान्यता क्यों न दी जाए ? हिंदी से जितनी दूर उर्दू है उससे कम दूर हिंग्लिश नहीं है ! – योगेन्द्र जोशी

मैं दैनिक समाचारपत्र ‘हिन्दुस्तान’ (लखनऊ संस्करण) का नियमित पाठक हूं । इस समाचारपत्र के साथ सप्ताह में कुछएक दिन ‘रीमिक्स’ नामक परिशिष्ट भी पाठकों को मिलता है । इस परिशिष्ट को देखकर मुझे ऐसा लगता है कि इसकी सामग्री आज के युवा पाठकों को ध्यान में रखकर ही चुनी जाती है । इसमें बहुत कम ऐसी विषयवस्तु मिलेगी जो मुझ जैसे उम्रदराज लोगों की रुचि की हो । इस बारे में मुझे कोई आपत्ति नहीं है । किंतु जो मेरे समझ से परे और कुछ हद तक मुझे अस्वीकार्य लगता है वह है इसमें अंग्रेजी के शब्दों का खुलकर इस्तेमाल किया जाना, भले ही उनके तुल्य शब्दों का हिन्दी में कोई अकाल नहीं है । ऐसा प्रतीत होता है कि ‘रीमिक्स’ की भाषा उन युवाओं को समर्पित है जो बोलने में तो हिंग्लिश के आदी हो ही चुके हैं और अब उसे बाकायदा लिखित रूप में भी देखना चाहेंगे । मैं समझता हूं कि उक्त समाचारपत्र का संपादक-मंडल यह महसूस करना है कि आने वाला समय वर्णसंकर भाषा हिंग्लिश का है और उसे आज ही व्यवहार में लेकर सुस्थापित किया जाना चाहिए ।

(‘हिन्दुस्तान’ समाचारपत्र वेबसाईट http://hindustandainik.com/ पर पढ़ा जा सकता है । यह ‘ई-पेपर’ के रूप में भी उपलब्ध है ।)

मैं अपनी बातें उक्त ‘रीमिक्स’ (हिन्दुस्तान, १० नवंबर) के इस उदाहरण से आरंभ करता हूं:
‘प्रॉब्लम: ऑयली स्किन की, सॉल्यूशन: वाटरबेस्ड फाउंडेशन’

यह है ‘रीमिक्स’ के दूसरे पृष्ठ के एक लेख का शीर्षक । मैं नहीं समझ पा रहा हूं कि यह वाक्यांश हिन्दी का है या अंग्रेजी का, जो देवनागरी लिपि में लिखा गया हो । हिन्दी के नाम पर इसमें मात्र एक पद है: ‘की’, शेष सभी अंग्रेजी के पद हैं । यदि देवनागरी लिपि हिन्दी की पहचान मान ली जाये तो इसे हिन्दी कहा ही जायेगा, भले ही पाठ फ्रांसीसी का हो या चीनी भाषा का । पर मुझे संदेह है कि कोई वैसा भी सोचता होगा । और अगर आप यह मानते हैं कि अंग्रेजी के सभी शब्द तो अब हिन्दी के ही मान लिए जाने चाहिए, तब मेरे पास आगे कुछ भी कहने को नहीं रह जाता है । उस स्थिति में आगे कही जा रही बातों पर नजर डालने की जरूरत भी आपको नहीं हैं । आगे की उन बातों को फिजूल कहकर अनदेखा करना होगा । आगे पढ़ने के लिए क्लिक करें >>

(पिछले लेख से आगे) मैंने पिछली बार अपना मत व्यक्त किया था कि अनुवाद में भावों को महत्त्व दिया जाना चाहिए और उसके लिए संबंधित दोनों भाषाओं में शब्द के लिए शब्द वाला प्रयोग करना सदैव सार्थक हो यह आवश्यक नहीं । आवश्यक हो जाने पर नये शब्दों/पदबंधों की रचना करने अथवा अन्य भाषाओं से शब्द आयातित करना भी एक मार्ग है । कुछ भी हो यह निर्विवाद कहा जायेगा कि अनुवाद में संलग्न व्यक्ति को संबंधित भाषाओं पर अच्छी पकड़ होनी चाहिए और उसकी शब्दसंपदा दोनों में पर्याप्त होनी चाहिए । फिर भी समस्याएं खड़ी हो सकती हैं । मेरे विचार से साहित्यिक रचनाओं के मामले में अनुवाद-कार्य जटिल सिद्ध हो सकता है । वस्तुतः साहित्यिक भाषा अक्सर आलंकारिक तथा मुहावरेदार होती है और बहुधा ऐसे असामान्य शब्दों से भी संपन्न रहती है जो अधिसंख्य लोगों की समझ से परे हों । वाक्य-रचनाएं भी सरल तथा संक्षिप्त हों यह आवश्यक नहीं । कभी-कभार ऐसी स्थिति भी पैदा हो सकती है कि पाठक पाठ्य के निहितार्थ भी ठीक न समझ सके, या जो वह समझे वह लेखक का मंतव्य ही न हो । साहित्यिक लेखकों की अपनी-अपनी शैली होती है और लेखन में उनकी भाषायी विद्वत्ता झलके कदाचित् यह अघोषित कामना भी उसमें छिपी रहती है ।

इसके विपरीत वैज्ञानिक तथा व्यावसायिक विषयों के क्षेत्र में लेखन, जिसका थोड़ा-बहुत अनुभव मुझे है, में सरल तथा संक्षिप्त वाक्यों के प्रयोग की अपेक्षा की जाती है । इन क्षेत्रों में लेखक से यह उम्मींद की जाती है कि उसकी अभिव्यक्ति स्पष्ट हो और लिखित सामग्री उन लोगों के लिए भी बोधगम्य हो जो भाषा का विद्वतापूर्ण ज्ञान न रखते हों । संक्षेप में भाषा वस्तुनिष्ठ होनी चाहिए न कि व्यक्तिनिष्ठ । हां, लेखों को समझने में पाठक की विषय संबंधी पृष्ठभूमि का स्वयं में महत्त्व अवश्य रहता है ।

मेरी दृष्टि में पत्रकारिता की स्थिति काफी हद तक वैज्ञानिक आदि के क्षेत्रों की जैसी होनी चाहिए । मैं समझता हूं कि साहित्यक रचनाओं का पाठकवर्ग अपेक्षया छोटा होता है और उसकी साहित्य में विशिष्ट रुचि होती है । इसके विरुद्ध पत्रकारिता से संबद्ध पाठकवर्ग बहुत विस्तृत रहता है और पाठकों की भाषायी क्षमता अतिसामान्य से लेकर उच्च कोटि तक का हो सकता है । पत्रकार को तो उस व्यक्ति को भी ध्यान में रखना चाहिए जो लेखों को समझने में अपने दिमाग पर अधिक जोर नहीं डाल सकता है । इसलिए मैं तो यही राय रखता हूं कि पत्रकार सरल तथा स्पष्ट लेखन करे । यदि अन्य भाषा का मूल लेख इस श्रेणी का हो अनुवाद करना भी सरल ही होना चाहिए । कुछ भी हो यह तो तब भी आवश्यक ही माना जायेगा कि पत्रकार का संबंधित भाषाओं का ज्ञान अच्छा हो और तदनुकूल वह अपने भाषाज्ञान में उत्तरोत्तर सुधार करे ।

परंतु हिन्दी पत्रकारिता में लगे लोगों में क्या हिन्दी के प्रति इतना सम्मान रह गया है कि वे उस पर अपनी पकड़ को मजबूत करें । देश में इस समय जो स्थिति चल रही है उसमें पढ़े-लिखे लोगों के बीच हिंग्लिश का प्रचलन बढ़ता जा रहा है । मैं समझता हूं कि हिंग्लिश से प्रायः सभी परिचित होंगे । हिंग्लिश, जिसे कुछ लोग हिंग्रेजी कहना अधिक पसंद करेंगे, एक नयी वर्णसंकर भाषा है, जिसका व्याकरणीय ढांचा तो हिंदी का है किंतु जिसकी शब्दसंपदा पारंपरिक न होकर अंग्रेजी से उधार ली गयी है । वस्तुतः हिंग्लिश का हिन्दी से कुछ वैसा ही संबंध है जो उर्दू का है । पढ़े-लिखे लोगों की यह दलील है कि हमें मुक्त हृदय से अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करना चाहिए । इन ‘अन्य भाषाओं’ में कोई और नहीं केवल अंग्रेजी है । उनसे पूछा जाये कि उन्होंने बांग्ला-मराठी और थोड़ा आगे बढ़कर तेलुगू-कन्नड़ के कितने शब्द आयातित किये हैं तो वे निरुत्तर मिलेंगे । इस तर्क को मैं निहायत बेतुका मानता हूं और यह कहने में मुझे बिल्कुल भी हिचक नहीं होती कि यह ‘कुतर्क’ वे अपनी हिन्दी-संबंधी भाषायी अक्षमता को छिपाने के लिए देते हैं । उनका हिन्दी शब्द-भंडार इस कदर कमजोर हो चुका है कि वे हिन्दी में किसी विषय पर बोल ही नहीं सकते । लेकिन यही वे लोग हैं जो अंग्रेजी की शुद्धता के प्रति अतिसचेत मिलेंगें । भूले से भी वे कभी अंग्रेजी में हिन्दी अथवा अन्य देसी भाषाओं के शब्दों का प्रयोग करते हुए नहीं मिलेंगे । मुझे तो तब हंसी आती है जब इस प्रकार का कुतर्क स्वयं हिन्दी रचनाकारों के मुख से भी सुनता हूं ।

मैं दूरदर्शन पर प्रसारित समाचारों में थोड़ा-बहुत साफ-सुथरी हिन्दी सुन लेता हूं । समाचारों की यह गुणवत्ता निजी चैनलों पर कुछ कम मिलती है । समाचार कक्ष से प्रसारित समाचार कुछ हद तक सावधानी से लिखे रहते हैं । किंतु बाहर घटनास्थल से जीवंत वार्ता (लाइव न्यूज) पेश करने वाले संवाददाता के मुख से अंग्रेजी-मिश्रित हिन्दी ही सुनने को मिलती है । संवाददाता अपनी बात कुछ यूं कहता है (एक बानगी):-
“रशियन प्रेजिडेंट दमित्री मेद्वेदेव ने कहा है कि रूस अगले दो सालों में एअरक्राफ्ट कैरियर का लार्ज-स्केल कंस्ट्रक्शन लांच करेगा …”

आपत्ति की जा सकती है कि इस उदारण में कुछ अधिक ही अंग्रेजी शब्द हैं । मान लेता हूं, किंतु क्या कोई उक्त बात को कुछ यूं पेश करेगा ? –
“रूसी राष्ट्रपति दमित्री मेद्वेदेव ने कहा है कि रूस अगले दो सालों में वायुयान वाहकों का वृहत्तर स्तर पर निर्माण-कार्य आरंभ करेगा …”

शायद कोई इस प्रकार से समाचार लिख भी ले, परंतु बोलते वक्त तो स्वाभाविक तौर पर अंग्रेजी शब्द ही वार्ताप्रेषकों के मुख से निकलेंगे । लेकिन कोई भी अंग्रेजी पत्रकार भूले से हिन्दी शब्दों का प्रयोग करता हुआ नहीं पाया जायेगा, भले ही किसी उपयुक्त शब्द की तलाश में वह कुछ क्षण रुक जाये । इस सबके पीछे हमारी यह मानसिकता है कि हिन्दी में तो कुछ भी ठूंस दें चलेगा, परंतु अंग्रेजी में तो शुद्धता रखनी ही पड़ेगी । शुद्ध अंग्रेजी हमारी प्रतिष्ठा के लिए अनिवार्य है, और अंग्रेजीमिश्रित हिन्दी पर हम लज्जित होने की भला क्यों सोचे ? (हिंग्लिश पर अपने विचार बाद में अलग से कभी पेश करूंगा ।)

जब स्थिति यह हो कि पत्रकार अपनी बातें हिन्दी में प्रस्तुत करने में बेझिझक अंग्रेजी शब्द प्रयोग करें और कभी पूरा वाक्य ही अंग्रेजी का बोल जायें तो फिर अनुवाद की गुणवत्ता का प्रश्न कहां उठता है ? किसको चिंता होगी तब हिन्दी शब्दों की ? – योगेन्द्र