हिन्दी दिवस (१४ सितंबर, २०१८) – सरल शब्दों की तलाश
सितम्बर 14, 2018
आज हिन्दी दिवस है, हिन्दी का राजभाषा के रूप में जन्म का दिन। इस अवसर पर हिन्दी प्रेमियों तथा हिन्दी प्रयोक्ताओं के प्रति शुभेच्छाएं। हिन्दी की दशा सुधरे यही कामना की जा सकती है।
इस दिवस पर कहीं एक-दिनी कार्यक्रम होते हैं तो कहीं हिन्दी के नाम पर पखवाड़ा मनाया जाता है। इन अवसरों पर हिन्दी को लेकर अनेक प्रभावी और मन को आल्हादित-उत्साहित करने वाली बातें बोली जाती हैं, सुझाई जाती हैं। इन मौकों पर आयोजकों, वक्ताओं से लेकर श्रोताओं तक को देखकर लगता है अगले दिन से सभी हिन्दी की सेवा में जुट जाएंगे। आयोजनों की समाप्ति होते-होते स्थिति श्मशान वैराग्य वाली हो जाती है, अर्थात् सब कुछ भुला यथास्थिति को सहजता से स्वीकार करते हुए अपने-अपने कार्य में जुट जाने की शाश्वत परंपरा में लौट आना।
इस तथ्य को स्वीकार किया जाना चाहिए कि जैसे किसी व्यक्ति के “बर्थडे” (जन्मदिन) मनाने भर से वह व्यक्ति न तो दीर्घायु हो जाता है, न ही उसे स्वास्थलाभ होता है, और न ही किसी क्षेत्र में सफलता मिलती है, इत्यादि, उसी प्रकार हिन्दी दिवस मनाने मात्र से हिन्दी की दशा नहीं बदल सकती है, क्योंकि अगले ही दिन से हर कोई अपनी जीवनचर्या पूर्ववत् बिताने लगता है।
मैं कई जनों के मुख से अक्सर सुनता हूं और संचार माध्यमों पर सुनता-पढ़ता हूं कि हिन्दी विश्व में फैल रही है, उसकी ओर लोग आकर्षित हो रहे हैं, उसे अपना रहे हैं। किंतु दो बातें स्पष्टता से नहीं कही जाती हैं:
(१) पहली यह कि हिन्दी केवल बोलचाल में ही देखने को मिल रही है, यानी लोगबाग लिखित रूप में अंग्रेजी विकल्प ही सामान्यतः चुनते हैं, और
(२) दूसरी यह कि जो हिन्दी बोली-समझी जाती है वह उसका प्रायः विकृत रूप ही होता है जिसमें अंग्रेजी के शब्दों की इतनी भरमार रहती है कि उसे अंग्रेजी के पर्याप्त ज्ञान के अभाव में समझना मुश्किल है।
कई जन यह शिकायत करते हैं कि हिन्दी में या तो शब्दों का अकाल है या उपलब्ध शब्द सरल नहीं हैं। उनका कहना होता है कि हिन्दी के शब्दसंग्रह को वृहत्तर बनाने के लिए नए शब्दों की रचना की जानी चाहिए अथवा उन्हें अन्य भाषाओं (अन्य से तात्पर्य है अंग्रेजी) से आयातित करना चाहिए। मेरी समझ में नहीं आता है कि उनका “सरल” शब्द से क्या मतलब होता है? क्या सरल की कोई परिभाषा है? अभी तक मेरी यही धारणा रही है कि जिन शब्दों को कोई व्यक्ति रोजमर्रा सुनते आ रहा हो, प्रयोग में लेते आ रहा हो, और सुनने-पढ़ने पर आत्मसात करने को तैयार रहता हो, वह उसके लिए सरल हो जाते हैं।
उपर्युक्त प्रश्न मेरे सामने तब उठा जब मुझे सरकारी संस्था “वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली आयोग” से जुड़ा समाचार पढ़ने को मिला। दैनिक जागरण में छपे समाचार की प्रति प्रस्तुत है। समाचार के अनुसार आयोग “नए-नए शब्दों को गढ़ने और पहले से प्रचलित हिंदी शब्दों के लिए सरल शब्द तैयार करने के काम में जुटा है।”
आयोग जब सरल शब्द की बात करता है तो वह उसके किस पहलू की ओर संकेत करता है? उच्चारण की दृष्टि से सरल, या वर्तनी की दृष्टि से? याद रखें कि हिन्दी कमोबेश ध्वन्यात्मक (phonetic) है (संस्कृत पूर्णतः ध्वन्यात्मक है)। इसलिए वर्तनी को सरल बनाने का अर्थ है ध्वनि को सरल बनाना। और इस दृष्टि से हिन्दी के अनेक शब्द मूल संस्कृत शब्दों से सरल हैं ही। वस्तुतः तत्सम शब्दों के बदले तद्भव शब्द भी अनेक मौकों पर प्रयुक्त होते आए हैं। उदाहरणतः
आलस (आलस्य), आँसू (अश्रु), रीछ (ऋक्ष), कपूत (कुपुत्र), काठ (काष्ठ), चमार (चर्मकार), चैत (चैत्र), दूब (दूर्वा), दूध (दुiग्ध), धुआँ (धूम्र)
ऐसे तद्भव शब्द हैं जो हिन्दीभाषी प्रयोग में लेते आए हैं और जिनके तत्सम रूप (कोष्ठक में लिखित) शायद केवल शुद्धतावादी लेखक इस्तेमाल करते होंगे। हिन्दी के तद्भव शब्दों की सूची बहुत लंबी होगी ऐसा मेरा अनुमान है।
ऐसे शब्द हमारी रोजमर्रा की जिन्दगी के हिस्से हैं। किंतु अयोग के समक्ष समस्या इसके आगे विशेषज्ञता स्तर के शब्दों की रचना करने और उनके यथासंभव सरलीकरण की है। बात उन शब्दों की हो रही है जो भाषा में तो हों किंतु प्रचलन में न हों अतः लोगों के लिए पूर्णतः अपरिचित हों। अथवा वांचित अर्थ व्यक्त करने वाले शब्द उपलब्ध ही न हों। पहले मामले में उनके सरलीकरण की और दूसरे मामले में शब्द की नये सिरे से रचना की बात उठती है। यहां पर याद दिला दूं कि हमारे हिन्दी शब्दों का स्रोत संस्कृत है न कि लैटिन एवं ग्रीक जो अंग्रेजी के लिए स्रोत रहे हैं और आज भी हैं। अन्य भारतीय भाषाओं से शब्द ले सकते हैं, परंतु उनकी स्थिति भी हिन्दी से भिन्न नहीं है और वे भी मुख्यतः संस्कृत पर ही निर्भर हैं। हिन्दी पर अरबी-फारसी का काफी प्रभाव रहा है। लेकिन जिन शब्दों की तलाश आयोग को है वे कदाचित् इन भाषाओं में उपलब्ध नहीं है। यदि कोई शब्द हों भी तो वे भारतीयों के लिए अपरिचित-से होंगे। जब संस्कृत के शब्द ही कठिन लगते हों तो इन भाषाओं से उनका परिचय तो और भी कम है।
ले दे के बात अंग्रेजी के शब्दों को ही हिन्दी में स्वीकारने पर आ जाती है, क्योंकि अंग्रेजी स्कूल-कालेजों की पढ़ाई और व्यावसायिक एवं प्रशासनिक क्षेत्रों में अंग्रेजी के वर्चस्व के चलते हिन्दी एवं क्षेत्रीय भाषाएं महत्व खोती जा रही हैं। आज स्थिति क्या है इसका अंदाजा आप मेरे एक अनुभव से लगा सकते हैं –
एक बार मैं एक दुकान (अपने हिन्दीभाषी शहर वाराणसी का) पर गया हुआ था। मेरी मौजूदगी में ९-१० साल के एक स्कूली बच्चे ने कोई सामान खरीदा जिसकी कीमत दूकानदार ने “अड़तीस” (३८) रुपये बताई। लड़के के हावभाव से लग गया कि वह समझ नहीं पा रहा था कि अड़तीस कितना होता है। तब दूकानदार ने उसे बताया कि कीमत “थर्टि-एट” रुपए है। लड़का संतुष्ट होकर चला गया। मेरा मानना है कि ऐसी स्थिति अंग्रेजी माध्यम की स्कूली शिक्षा का परिणाम है। इस “अड़तीस” का भला क्या सरलीकरण हो सकता है?
जब आप पीढ़ियों से प्रचलित रोजमर्रा के हिन्दी शब्दों को ही भूलते जा रहे हों तो फिर विशेषज्ञता स्तर के शब्दों को न समझ पाएंगे और न ही उन्हें सीखने को उत्साहित या प्रेरित होंगे। तब क्या नये-नये शब्दों की रचना का प्रयास सार्थक हो पाएगा?
संस्कृत पर आधारित शब्द-रचना के आयोग के प्रयास लंबे समय से चल रहे हैं। रचे या सुझाए गये शब्द कितने सरल और जनसामान्य के लिए कितने स्वीकार्य रहे हैं इसे समझने के लिए एक-दो उदाहरण पर्याप्त हैं। वर्षों पहले “कंप्यूटर” के लिए आयोग ने “संगणक” गढ़ा था। लेकिन यह शब्द चल नहीं पाया और अब सर्वत्र “कंप्यूटर” शब्द ही इस्तेमाल होता है। इसी प्रकार “ऑपरेटिंग सिस्टम” (operating system) के लिए “प्रचालन तंत्र” सुझाया गया। वह भी असफल रहा। आयोग के शब्दकोश में “एंजिनिअरिंग” के लिए “अभियांत्रिकी” एवं “एंजिनिअर” के लिए “अभियंता उपलब्ध हैं, किंतु ये भी “शुद्ध” हिन्दी में प्रस्तुत दस्तावेजों तक ही सीमित रह गए हैं। आयोग के ऐसे शब्दों की सूची लंबी देखने को मिल सकती है।
आयोग सार्थक पारिभाषिक शब्दों की रचना भले ही कर ले किंतु यह सुनिश्चित नहीं कर सकता है कि जनसामान्य में उनकी स्वीकार्यता होगी। शब्दों के अर्थ समझना और उन्हें प्रयोग में लेने का कार्य वही कर सकता है जो भाषा में दिलचस्पी रखते हों और अपनी भाषायी सामर्थ्य बढ़ाने का प्रयास करते हों। हिन्दी का दुर्भाग्य यह है कि स्वयं हिन्दीभाषियों को अपनी हिन्दी में मात्र इतनी ही रुचि दिखती है कि वे रोजमर्रा की सामान्य वार्तालाप में भाग ले सकें, वह भी अंग्रेजी के घालमेल के साथ। जहां कहीं भी वे अटकते हैं वे धड़ल्ले से अंग्रेजी शब्द इस्तेमाल कर लेते हैं इस बात की चिंता किए बिना कि श्रोता अर्थ समझ पाएगा या नहीं। कहने का मतलब यह है कि आयोग की पारिभाषिक शब्दावली अधिकांश जनों के लिए माने नहीं रखती है।
इस विषय पर एक और बात विचारणीय है जिसकी चर्चा मैं एक उदाहरण के साथ करने जा रहा हूं। मेरा अनुभव यह है कि किन्ही दो भाषाओं के दो “समानार्थी” समझे जाने वाले शब्द वस्तुतः अलग-अलग प्रसंगों में एकसमान अर्थ नहीं रखते। दूसरे शब्दों में प्रायः हर शब्द के अकाधिक अर्थ भाषाओं में देखने को मिलते हैं जो सदैव समानार्थी या तुल्य नहीं होते। भाषाविद् उक्त तथ्य को स्वीकारते होंगे।
मैंने अंग्रेजी के “सर्वाइबल्” (survival)” शब्द के लिए हिन्दी तुल्य शब्द दो स्रोतों पर खोजे।
(१) एक है आई.आई.टी, मुम्बई, के भारतीय भाषा प्रौद्योगिकी केन्द्र (http://www.cfilt.iitb.ac.in/) द्वारा विकसित शब्दकोश, और
(२) दूसरा है अंतरजाल पर प्राप्य शब्दकोश (http://shabdkosh.com/)।
मेरा मकसद था जीवविज्ञान के विकासवाद के सिद्धांत “survival of the fittest” की अवधारणा में प्रयुक्त “सर्वाइबल्” के लिए उपयुक्त हिन्दी शब्द खोजना।
पहले स्रोत पर केवल २ शब्द दिखे:
१. अवशेष, एवं २. उत्तरजीविता
जब कि दूसरे पर कुल ७ नजर आए:
१. अवशेष, २. अतिजीवन, ३. उत्तर-जीवन, ४. उत्तरजीविता, ५. जीवित रहना, ६. प्रथा, ७. बची हुई वस्तु या रीति
जीवधारियों के संदर्भ में मुझे “अवशेष” सार्थक नहीं लगता। “उत्तरजीविता” का अर्थ प्रसंगानुसार ठीक कहा जाएगा ऐसा सोचता हूं। दूसरे शब्दकोश के अन्य शब्द मैं अस्वीकार करता हूं।
अब मेरा सवाल है कि “उत्तरजीविता” शब्द में निहित भाव क्या हैं या क्या हो सकते हैं यह कितने हिन्दीभाषी बता सकते हैं? यह ऐसा शब्द है जिसे शायद ही कभी किसी ने सुना होगा, भले ही भूले-भटके किसी ने बोला हो। जो लोग संस्कृत में थोड़ी-बहुत रुचि रखते हैं वे अर्थ खोज सकते हैं। अर्थ समझना उस व्यक्ति के लिए संभव होगा जो “उत्तर” एवं “जिविता” के माने समझ सकता है। जितना संस्कृत-ज्ञान मुझे है उसके अनुसार “जीविता” जीवित रहने की प्रक्रिया बताता है, और “उत्तर” प्रसंग के अनुसार “बाद में” के माने व्यक्त करता है। यहां इतना बता दूं कि “उत्तर” के अन्य भिन्न माने भी होते हैं: जैसे दिशाओं में से एक; “जवाब” के अर्थ में; “अधिक” के अर्थ में जैसे “पादोत्तरपञ्चवादनम्” (एक-चौथाई अधिक पांच बजे) में।
लेकिन एक औसत हिन्दीभाषी उक्त शब्द के न तो अर्थ लगा सकता है और न ही उसे प्रयोग में ले सकता है। ऐसी ही स्थिति अन्य पारिभाषिक शब्दों के साथ भी देखने को मिल सकती है।
संक्षेप मे यही कह सकता हूं कि चूंकि देश में सर्वत्र अंग्रेजी हावी है और हिन्दी के (कदाचित् अन्य देशज भाषाओं के भी) शब्द अंग्रेजी से विस्थापित होते जा रहे हैं अतः सरल शब्दों की रचना से कुछ खास हासिल होना नहीं है। – योगेन्द्र जोशी
यह एक परंपरा-सी बन गई है कि विशेष अवसरों पर लोग संस्कृत भाषा आधारित वाक्यांशों या सूक्तियों का प्रयोग करते हैं । केंद्रीय सरकार के मोहर या सील पर ‘सत्यमेव जयते’ अंकित रहता है इसे सभी जानते हैं । इसी प्रकार ‘अतिथिदेवो भव’, ‘अहिंसा परमो धर्म’, ‘विद्यया९मृतमश्नुते’, ‘योगक्षेमं वहाम्यहम्’, आदि जैसी उक्तियां प्रसंगानुसार देखने को मिल जाती हैं । निमंत्रणपत्रों पर गणेश वंदना अथवा देवी-देवताओं की वंदना के श्लोकों का प्रचलन भी आम बात है । मैंने कई बार देखा है कि इनका उल्लेख वर्तनी की दृष्टि से त्रुटिपूर्ण रहता है । इस विषय पर मैंने पहले भी अपनी बातें लिखी हैं (देखें 7 मार्च 2011 की प्रविष्टि)
कल के अपने हिंदी अखबार के मुखपृष्ठ पर पूरे पेज का एक विज्ञापन मुझे देखने को मिला । विज्ञापन किसी कोचिंग संस्था का है और पूरा का पूरा अंग्रेजी में है । फिर भी उसमें गुरुमहिमा को रेखांकित करने के लिए अधोलिखित श्लोक का उल्लेख है, जिसे मैं यथावत् प्रस्तुत कर रहा हूं:
गुरुः ब्रह्मा गुरुः विष्णुः, गुरुः देवो महेश्वरा ।
गुरुः साक्षात परब्रह्मा, तस्मै श्री गुरुवे नमः ॥
इस श्लोक के उद्धरण में एकाधिक त्रुटियां देखी जा सकती हैं । प्रथम तो यह है कि ‘महेश्वरा’ के स्थान पर ‘महेश्वरः’ होना चाहिए । दूसरा ‘साक्षात’ को हलंत अर्थात् ‘साक्षात्’ होना चाहिए । पद्यरचना के संस्कृत भाषा के नियमों के अनुसार छंदों (श्लोकों) में पदों (शब्दों) को परस्पर संधि करके लिखना अनिवार्य है । उक्त श्लोक में कुछ स्थलों पर ‘विसर्ग’ का ‘र्’ होकर अगले पद के साथ संधि होनी चाहिए । यह तीसरी त्रुटि समझी जानी चाहिए । इसके अतिरिक्त मेरे मत में ‘श्री गुरुवे’ सामासिक पद के रूप में अर्थात् ‘श्रीगुरवे’ लिखा जाना चाहिए; गुरुवे नहीं गुरवे। परब्रह्मा के स्थान पर परब्रह्म होना चाहिए । इन त्रुटियों के निवारण के बाद सही श्लोक यों लिखा जाना चाहिए:
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवो महेश्वरः ।
गुरुः साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥
(शाब्दिक अर्थः गुरु ब्रह्मा हैं, गुरु विष्णु हैं, गुरु देव महेश्वर शिव हैं, गुरु ही वस्तुतः परब्रह्म परमेश्वर हैं; ऐसे श्रीगुरु के प्रति मेरा नमन है । गुरु ज्ञान-दाता अपने से श्रेष्ठ व्यक्ति होता है । उक्त श्लोक में यह भाव व्यक्त हैं कि परमात्मा का ज्ञान पाने, उस तक पहुंचने, का मार्ग गुरु ही होते हैं । ‘श्री’ सम्मान, प्रतिष्ठा, या ऐश्वर्यवत्ता का द्योतक है और नामों के साथ आदरसूचक संबोधन के तौर पर प्रयुक्त होता है ।)
इस बात पर भी ध्यान दें परंपरानुसार संस्कृत में ‘कॉमा’ का प्रयोग नहीं होता, क्योंकि यह विराम चिह्न संस्कृत का है नहीं । आधुनिक संस्कृत-लेखक इसे प्रयोग में लेने लगे हैं । काफी पहले छपे ग्रंथों में इनका अभाव देखने को मिलेगा ।
मैं समझता हूं कि संस्कृत छंदों/सूक्तियों का प्रयोग करके उसे प्रभावी बनाने की कोशिश विविध मौकों पर की जाती है, कदाचित् अपने समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का स्मरण कराने के लिए । ‘कोटेशनों’ का प्रयोग साहित्य में नई बात नहीं है । लिखित सामग्री को प्रभावी बनाने के लिए ऐसा किया ही जाता है । विज्ञापनों में भी उनका सम्मिलित किया जाना अनुचित नहीं है । परंतु जब उनके लेखन में सावधानी नहीं बरती गई हो और दोषपूर्ण वर्तनी प्रयोग में ली गई हो तो मुझ जैसे लोगों को वह खलता है । पाठ्य सामग्री के अंतर्गत कहीं बीच में ऐसी त्रुटियां अक्सर रहती हैं, और वे बहुत नहीं खलती हैं । किंतु जब वे शीर्षक के तौर पर प्रयुक्त हों, या ऐसे स्थल पर हों जहां सहज ही ध्यान चला जाता हो, अथवा जब उन पर बरबस नजर पड़ने जा रही हो, तब मुझे बेचैनी होने लगती है ।
यह सच है कि अधिकतर लोगों का संस्कृत विषयक ज्ञान नहीं के बराबर रहता है । वे किसी उक्ति/कथन को अपने लेखन में उस रूप में शामिल कर लेते हैं जिस रूप में उसे उन्होंने कहीं देखा या सुना होता है । आम तौर पर वे इस संभावना पर ध्यान नहीं देते कि उसमें त्रुटि भी हो सकती है । मेरा मत है कि जिस बात के सही/गलत का समुचित ज्ञान उन्हें न हो उसके बारे में किसी जानकार से सलाह लेनी चाहिए । मैं समझता हूं जिन शब्दों को आप लाखों टीवी दर्शकों के सामने दिखा रहे हों, अथवा जो अखबार आदि के प्रमुख स्थलों पर अनेक जनों की दृष्टि में आने के लिए मुद्रित हों, उनमें त्रुटियां न हों इसकी सावधानी बरती जानी चाहिए । मुझे लगता है उपर्युक्त विज्ञापन में ऐसी सावधानी नहीं बरती गई है ।
इस समय एक और उदाहरण मेरे ध्यान में आ रहा है । आजकल किस टीवी चैनल पर एक धारावाहिक दिखाया जा रहा है जिसका नाम है ‘सौभाग्यवती भवः’ । ऐसा लगता है कि निर्माता ने इस नाम को चुनने में सावधानी नहीं बरती । वास्तव में संस्कृत व्याकरण के अनुसार ‘भवः’ सर्वथा गलत है । इसके स्थान पर बिना विसर्ग के ‘भव’ होना चाहिए ।
आरंभ में मैंने ‘सत्यमेव जयते’ का जिक्र किया है । मुझे शंका है कि भी उसमें एक छोटी-सी व्याकरणमूलक त्रुटि है । इस बारे में मैंने अन्यत्र पहले कभी लिखा है । – योगेन्द्र जोशी
चंद रोज पहले अंतरजाल पर ‘हिंदी समूह’ के किसी स्थल पर एक पाठक ने यह प्रश्न उठाया थाः
“प्रवचन एवं प्रवंचना से तो वह परिचित है, किंतु क्या प्रवंचन भी हिंदी का स्वीकार्य शब्द है ?”प्रश्न का संक्षिप्त उत्तर है हां । वास्तव में प्रवंचन तथा प्रवंचना, दोनों ही स्वीकार्य हैं और दोनों का अर्थ एक ही हैः छल-कपट या धोखा देने का भाव । किंतु व्यवहार में प्रवंचना का प्रयोग ही अधिकाशतः देखने को मिलता है । इन दोनों में लिंगभेद भी है, पहला नपुंसक लिंग है तो दूसरा स्त्रीलिंग । आत्म-प्रवचंना (self-deception) शब्द तो एक पर्याप्त प्रचलित शब्द है ।
संस्कृत में उक्त शब्दों के सदृश कई अन्य जोड़े भी हैं । कुछ चुने हुए शब्दयुग्मों की सूची मैं आगे प्रस्तुत कर रहा हूं:
(टिप्पणी– कोष्ठकों में दी गयी वैकल्पिक वर्तनी ही संस्कृत में मान्य है; अनुस्वार वाली हिंदी के लिए अनुमत है )
1. अन्वेषण, अन्वेषणा; 2. अर्चन, अर्चना 3. अर्हण, अर्हणा (सम्मान-अभिव्यक्ति); 4. अवमानन, अवमानना; 5. अशन, अशना (भोजन, भोजन करना); 6. आमंत्रण, आमंत्रणा (आमन्त्रण, आमन्त्रणा); 7. आराधन, आराधना; 8. उत्तेजन, उत्तेजना; 9. उद्घट्टन, उद्घट्टना (टकराना); 10. उद्घोषण, उद्घोषणा; 11. उपस्थापन, उपस्थापना (निकट रखना); 12. उपार्जन, उपार्जना; 13. उपासन, उपासना; 14. कल्पन, कल्पना; 15. क्षारण, क्षारणा (दोषारोपण, आरोप लगाना); 16. गणन, गणना; 17. गर्जन, गर्जना; 18. गवेषण, गवेषणा; 19. घटन, घटना; 20. घर्षण, घर्षणा; 21. घोषण, घोषणा; 22. चर्वण, चर्वणा (चबाना); 23. चिंतन, चिंतना (चिन्तन, चिन्तना); 24. चेतन, चेतना; 25. छलन, छलना (ठगना); 26. तर्जन, तर्जना (डाटना-फटकारना); 27. ताड़न, ताड़ना (ताडन, ताडना); 28 निराजन, निराजना (आरती, आरती करना); 29. निरूपण, निरूपणा (आकृति, व्यक्त करना); 30. परिकल्पन, परिकल्पना (रूप, रूप देना); 31. परिदेवन, परिदेवना (रोना-धोना); 32. पर्येषण, पर्येषणा (पूछताछ करना); 33. पालन, पालना; 34. प्रघर्षण, प्रघर्षणा (रगण, रगणना); 35. प्रदक्षिण, प्रदक्षिणा; 36. प्रवंचन, प्रवंचना (प्रवञ्चन, प्रवञ्चना) (धोखा देना); 37. प्रार्थन, प्रार्थना; 38. प्रेरण, प्रेरणा; 39. प्रोद्घोषण, प्रोद्घोषणा (ऐलान करना); 40. भर्त्सन, भर्त्सना; 41. भावन, भावना; 42. मंत्रण, मंत्रणा (मन्त्रण, मन्त्रणा); 43. मार्गण, मार्गणा (तलाश करना); 44. याचन, याचना; 45. यातन, यातना; 46. यापन, यापना; 47. योजन, योजना; 48. रोचन, रोचना (प्रकाशन, प्रकाशित करना); 49. लक्षण, लक्षणा (चिह्न); 50. लवण, लवणा (सलोना); 51. लांछन, लांछन (लाञ्छन, लाञ्छन); 52. वंचन, वंचना (वञ्चन, वञ्चना); 53. वर्णन, वर्णना; 54. वर्जन, वर्जना; 55. विगर्हण, विगर्हणा (निंदा); 56. विघट्टन, विघट्टना (टक्कर मारना); 57. विचारण, विचारणा; 58. विज्ञापन, विज्ञापना; 59. विडंबन, विडंबना (विडम्बन, विडम्बना); 60. विमर्दन, विमर्दना (कुचलना); 61. विवेचन, विवेचना; 62. वेदन, वेदना; 63. व्यंजन, व्यंजना (व्यञ्जन, व्यञ्जना ); 64. शुश्रूषण, शुश्रूषणा (सेवा, सेवा करना); 65. श्रवण, श्रवणा; 66. संकलन, संकलना (सङ्कलन, सङ्कलना); 67. संकीर्तन, संकीर्तना (सङ्कीर्तन, सङ्कीर्तना); 68. संघट्टन, संघट्टना (सङ्घट्टन, सङ्घट्टना) (टक्कर, टकराना); 69. संभावन, संभावना (सम्भावन, सम्भावना); 70. संवाहन, संवाहना (बोझा ढोना); 1. संवेदन, संवेदना; 72. संश्लेषण, संश्लेषणा (मिलाकर बांधना); 73. संस्थापन, संस्थापन; 74. सांत्वन, सांत्वना; 75. साधन, साधना; 76. सूचन, सूचना; 77. स्थापन, स्थापना; 78. हिंसन, हिंसना (चोट मारना); 79. हेलन, हेलना (अवहेलना करना)
चूंकि हिंदी में संस्कृत के शब्द सहज तौर पर स्वीकार कर लिये जाते हैं, अतः ये सभी शब्द स्वीकार्य कहे जाएंगे । यह एक तथ्य है कि किसी शब्दयुग्म के दोनों सदस्य व्यवहार में समान रूप से प्रयुक्त हों ऐसा नहीं होता । अज्ञात कारणों से कोई एक शब्द प्रायः पूरी तौर पर व्यवहार में आ जाता है और दूसरा अप्रयुक्त तथा अपरिचित-सा छूट जाता है । किंतु सैद्धांतिक रूप से वह संस्कृत में स्वीकार्य अवश्य रहता है ऐसा मेरा मत है । ये शब्द आए कहां से या कैसे बने इस पर यदि तनिक विचार किया जाए तो वस्तुस्थिति समझ में आ सकती है । इस संदर्भ में मैं इस स्थल पर उपसर्गों तथा प्रत्ययों की संक्षिप्त चर्चा करना चाहूंगा ।
आगे बढ़ने से पहले संस्कृत के एक नियम का उल्लेख कर लेना समीचीन होगा । संस्कृत पदों में अनुस्वार बिंदु का प्रयोग केवल ‘य’ से ‘ह’ तक के व्यंजनों के ठीक पूर्व किया जा सकता है, यथा संयम, संलग्न, संवेग, संशय आदि । किंतु किसी वर्गीय वर्ण (‘क’ से लेकर ‘म’ तक के कवर्ग, चवर्ग आदि के वर्ण) के पूर्व अनुस्वार नहीं प्रयुक्त होता बल्कि उसके स्थान पर संबंधित वर्ग का पांचवां वर्ण लिखा जाता है, जैसे अंक (हिंदी में) को संस्कृत में अङ्क लिखा जायेगा । इसी प्रकार भङ्गुर, कञ्चन, कण्टक, दन्द्व, लम्पट ही सही हैं । उक्त सूची में संस्कृत के इस नियम के अनुसार मान्य वर्तनी कोष्टक में दी गयी है ।
उपसर्ग (prefix) तथा प्रत्यय (suffix) – मेरी दृष्टि में संस्कृत प्रमुखतया क्रियाधातु-आधारित भाषा है, जिसका तात्पर्य यह है कि अधिकांश संज्ञा तथा विशेषण शब्दों को कतिपय नियमों के अधीन क्रियाधातुओं से प्राप्त किया जाता है । स्वयं नयी-नयी क्रियाधातुओं की रचना भी मूल धातुओं के पूर्व एक या अधिक उपसर्गों को जोड़ने से संभव है । व्याकरण पुस्तकों में निम्नलिखित 22 उपसर्गों का उल्लेख मिलता हैः
“अति, अधि, अनु, अपि, अभि, अव, आ, उत्, उप, दुर्, दुस्, नि, निर्, निस्, परा, परि, प्र, प्रति, वि, सम्, एवं सु”
(दुस् दुर् वस्तुतः एक ही उपसर्ग के दो भिन्न-भिन्न स्थितियों में प्रयोजनीय रूप हैं; और यही बात निर्, निस् के लिए भी है ।)
उपसर्गों के बारे में कहा जाता है “उपसर्गेण धात्वर्थो बलादन्यत्र नीयते । प्रहाराहारसंहारविहारपरिहारवत् ।।”
(उपसर्ग से धातु का अर्थ बलपूर्वक अन्यत्र पहुंचा दिया जाता है, यानी उसका अर्थ बदल जाता है, जैसे प्रहार, आहार, संहार, विहार, परिहार, जो सभी मूल धातु ‘हृ’ = ले जाना, हरना, आदि से प्राप्य हैं । हृ से हार और फिर प्र + हार आदि ।)
धातुओं और संज्ञाशब्दों से वाक्यों में प्रयोजनीय पदों की प्राप्ति प्रत्ययों के माध्यम से होती है, जिनकी संख्या बहुत है । उनका यहां उल्लेख करना न तो संभव है, और न ही मुझमें वह विशेषज्ञता है कि व्यापक चर्चा कर सकूं । फिर भी अतिसंक्षिप्त परिचय देकर उनकी प्रतीति देने की कोशिश कर सकता हूं । पहले बता दूं कि (संस्कृत में), पद धातु/संज्ञाशब्द का वह बदला हुआ रूप है जो वाक्य में वांछित अर्थ ग्रहण करना है । उदाहरणर्थः ‘राम’ से रामः, रामौ, रामाः इत्यादि (सुबन्त प्रत्यय), और ‘गम्’ (जाना) से गच्छति, गच्छतः, गच्छन्ति इत्यादि (तिङन्त प्रत्यय) । इसी प्रकार ‘कृ’ (करना) से कृति, कार्य, कर्तव्य (कृदन्त प्रत्यय); और उपसर्ग भी प्रयोग में ले लें तो आकृति, अनुकृति, प्रकृति, विकृति इत्यादि । इसके अलावा ‘सुन्दर’ से सौन्दर्य, सुन्दरता इत्यादि (तद्धित प्रत्यय) । ‘आत्मज’ से आत्मजा और तपस्विन् (तपस्वी) से तपस्विनी इत्यादि (स्त्रीप्रत्यय) । व्याकरणवेत्ता प्रत्ययों को पांच वर्गों में बांटते हैं: तिङन्त तथा कृदन्त क्रियाधातुओं के लिए और सुबन्त, तद्धित एवं स्त्रीप्रत्यय संज्ञा/सर्वनाम/विशेषण शब्दों के लिए । उपसर्गों की तुलना में प्रत्ययों का विषय कहीं अधिक गंभीर और विस्तृत है ।
एक बात और । उपसर्ग धातु/शब्द के पहले यथावत् (अपरिवर्तित) जुड़ता है, जैसे अनु+वाद = अनुवाद, परि+वाद = परिवाद, प्रति+वाद = प्रतिवाद, वि+वाद = विवाद, एवं सम्+वाद = संवाद । किंतु प्रत्ययों के मामले में यह बात शब्दशः लागू नहीं होती है । मेरे मत में प्रत्ययों को धातु/शब्द के पश्चात् क्या जुड़ना है और वह कब क्या रूप लेगा इसका द्योतक समझा जाना चाहिए । उदाहरणर्थ: ‘तुमुन्’ एवं ‘क्तवा’ धातुओं के साथ प्रयोजनीय कृदन्त वर्ग के दो प्रत्यय हैं । पहला धातु से संबंधित क्रिया ‘करने के लिए’ (to perform that act) के भाव को दर्शाने हेतु प्रयोग में लिया जाता है, जैसे गम्+तुमुन् = गन्तुम् (जाने को, जाने के लिए = to go; सः गन्तुं इच्छति = He wants to go), ज्ञा+तुमुन् = ज्ञातुम् (जानने के लिए), पठ्+तुमुन् = पठितुम् (पढ़ने के लिए), पा+तुमुन् = पातुम् (पीने के लिए), आदि । दूसरा ‘क्त्वा’ किसी क्रिया के ‘हो चुकने, कर चुकने, या संपन्न हो जाने’ के भाव को व्यक्त करने में प्रयोग में लिया जाता है, जैसे गम्+क्त्वा = गत्वा (जाकर), ज्ञा+क्त्वा = ज्ञात्वा (जान लेने पर), पठ्+क्त्वा = पठित्वा (पढ़ चुकने पर), पा+क्त्वा = पीत्वा (पीकर), आदि ।
उक्त परिचय के बाद मैं वापस अन्वेषण, अन्वेषणा, आदि शब्दों पर लौटता हूं । मैं जितना समझ पाया हूं, प्रत्येक धातु से संबंधित क्रिया के ‘होने का भाव’ व्यक्त करने के लिए उपयुक्त शब्द की रचना सदैव संभव है । इस कार्य हेतु ‘ल्युट्’ कृदन्त प्रत्यय उपलब्ध है, जिसके प्रयोग के दो-चार उदाहरण ये हैं:
अर्च् + ल्युट् = अर्चन
पठ् + ल्युट् = पठन
युज् + ल्युट् = योजन
लाञ्छ् + ल्युट् = लाञ्छन
विद् + ल्युट् = वेदन
स्पष्ट है कि ल्युट् के योग से धातु के अंत में ‘अन’ जुड़ जाता है (अर्च् + अन = अर्चन) । किंतु स्थिति सदैव इतनी सरल नहीं रहती है । यदि धातु में हलन्त व्यंजन से पूर्व ‘इ’, ‘उ’, या ‘ऋ’ हो तो उसका क्रमशः ए, ओ या अर् हो जाता है, जैसे कृ + ल्युट् = करण । ध्यान दें कि कुछ दशाओं में ‘न’ का ‘ण’ हो जाता है (मूर्धन्य घ्वनियों की मौजूदगी में) । ल्युट् के प्रयोग के नियम बहुत सरल नहीं हैं ।
उक्त प्रकार से प्राप्त संज्ञाशब्द मूलतः नपुंसक लिंग में प्रयुक्त होते हैं । उनके साथ स्त्रीप्रत्यय ‘टाप्’ जोड़ने से सिद्धांततः स्त्रीलिंग में शब्द मिलता है, जैसे अर्चन से अर्चन + टाप् = अर्चना । इस प्रकार अनेकों शब्द बन सकते हैं, किंतु सभी शब्द संस्कृत भाषा में व्यवहारिक तौर पर स्थान बना नहीं पाते हैं । फलतः अधिकांश शब्द नपुंसक लिंग में ही प्रयुक्त होते हैं, तो कुछ केवल स्त्रीलिंग में, और कुछ दोनों ही में । कभी-कभी पुंलिंग में भी प्रयोग देखने को मिल जाता है जिसकी वर्तनी नपुंसक वाली ही रहती है । उदाहरण हैं तापनम्, तापनः; तारणम्, तारणः; पूरणम्, पूरणः । और विरले अवसरों पर तीनों लिंगों में शब्द का प्रयोग देखने को मिल सकता है, यथा श्रवणः, श्रवणम्, श्रवणा ।
इतना और बता देना आवश्यक है कि उसी वर्तनी का शब्द अलग-अलग लिंगों में प्रयुक्त होता है तो बहुधा उनके अर्थ एक जैसे नहीं रह जाते हैं । ऐसा अक्सर होता है कि शब्द रुढ़ि अर्थ पा जाते हैं और उनके व्यापक अर्थ खो जाते है । तदनुसार पूरणम् के अर्थ पूरा करना, भरना, संपन्न करना आदि लिए जाते हैं, जब कि पूरणः पुल या बांध के अर्थ में न कि पूरणम् के अर्थ में । – योगेन्द्र