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PIDGIN –  A simple form of a language with elements taken from the local languages used for communication between people not sharing a common language. Origin: Chinese alteration for business.

CREOLE1 a person of mixed European and Black descent. 2 a descendent of European settlers in the Caribbians  or Central or South America. 3 a descendent of French settlers in the south of US. 4 a language formed with the combination of a European Language and an African Language.


पिजिन
‘पिजिन’ एवं ‘क्रिओल’ की ये परिभाषाएं कॉम्पैक्ट ऑक्सफर्ड रेफरेंस डिक्शनरी (Compact Oxford Reference Dictionary) से ली गयी हैं । अंतरजाल पर खोजने पर आपको इन शब्दों की व्याख्या अलग-अलग प्रकार से मिलेगी, लेकिन सभी का सार एक ही रहता है । देखने-पढ़ने के लिए संदर्भों की संख्या की कोई कमी नहीं हैं । मैंने निम्नलिखित को अधिक ध्यान से देखा था:

http://privatewww.essex.ac.uk/~patrickp/Courses/CreolesIntro.html
http://humanities.uchicago.edu/faculty/mufwene/pidginCreoleLanguage.html
http://logos.uoregon.edu/explore/socioling/pidgin.html

पिजिन (Pidgin) वस्तुतः एक मिश्रित बोली है । इसे भाषा कहना उचित नहीं होगा । जब ऐसे व्यक्ति-समूह परस्पर मिलते हैं जो एक-दूसरे की भाषा/बोली न जानते हों, किंतु उन्हें परस्पर व्यावसायिक/व्यापारिक संबंध स्थापित करने हों, तब कामचलाऊ बोली का जन्म होता है । दो या अधिक भाषाओं के शब्दों की खिचड़ी बोली जिससे परस्पर का कार्यव्यापार चल जाए वह पिजिन कहलाती है । बताया जाता है कि ‘पिजिन’ शब्द अंग्रेजी शब्द बिजनेस (business) का चीनी भाषा में रूपांतर है । शब्द की व्युत्पत्ति का खास इतिहास नहीं है । कहा जाता है कि पिजिन शब्द 1807 से प्रचलन में है ।

पिजिन बोलियों के इतिहास का यूरोपियों द्वारा अमेरिकी द्वीपों में उपनिवेश स्थापित करने से घनिष्ठ संबंध रहा है । स्थानीय जनसमुदायों के साथ काम भर का संपर्क स्थापित करने अथवा उनकी श्रमशक्ति का उपयोग करने के लिए ऐसी टूटी-फूटी बोली का प्रचलन हुआ । इतना ही नहीं, कई क्षेत्रों में कृषि एवं अन्य कार्यों के लिए वे लोग अपने साथ अफ्रिकी ‘गुलामों’ को भी ले गये । उनके साथ संवाद के लिए भी ऐसी बोली प्रचलन में आई । इन अवसरों पर ‘सभ्य’ कहे जाने वाले और समुन्नत भाषाओं के धनी यूरोपियों की उन श्रमिकों या ‘गुलामों’ की अपेक्षया अविकसित भाषा सीखने में स्वाभाविक तौर पर कोई दिलचस्पी नहीं रही होगी । दूसरी तरफ श्रमिकों/‘गुलामों’ में भी इतनी क्षमता कदाचित् नहीं रही होगी कि वे ‘मालिकों’ की भाषा को सरलता से अपना लें । दोनों प्रकार के समुदायों का परस्पर संपर्क केवल जरूरी कार्यव्यापार तक सीमित था जिसके लिए पिजिन से काम लेना पर्याप्त था । श्रमिक/‘गुलाम’ जब स्वयं ही अलग-अलग क्षेत्रों के मूल बाशिंदे होते थे, तब वे भी आपस में पिजिन का सहारा लेते थ और उस बोली में दो से अधिक भाषाओं/बोलियों के शब्द शामिल हो जाते थे । इन मिश्रित बोलियों को संबंधित भाषाओं के नाम से पुकारा जाने लगा, यथा पापुआ न्यू गिनी पिजिन जर्मन (Papua New Guinea Pidgin German ), कैमरून पिजिन इंग्लिश (English based Cameroon Pidgin) आदि ।

पिजिन बोली का कोई सुनिश्चित व्याकारणीय स्वरूप नहीं रहता । इसकी शब्दसंपदा बेहद कम और कामचलाऊ रहती है, जिसमें संबंधित भाषाओं के शब्द रहते हैं । आम तौर यूरोनीय भाषा के शब्द अधिक रहते हैं जब कि उनका उच्चारण, वाक्य में क्रम, आदि स्थानीय बोली पर अधिक आधारित रहते हैं । प्रमुख भाषा को उपरिस्तरीय (Superstrate) एवं गौण को अधोस्तरीय (Substrate) कहा जाता है । पिजिन का एक उदाहरण (उपर्युक्त किसी जालस्थल से लिया गया कैमरून पिजिन इंग्लिश) देखिए:
dis smol swain i bin go fo maket (दिस स्मोल स्वैन इ बिन गो फो माकेट) = this little pig went to market
पिजिन एवं क्रिओल (आगे देखें) का अध्ययन अपने देश में शायद नहीं होता है, किंतु यूरोप एवं अमेरिका के कुछ शिक्षण संस्थाओं के भाषा विभागों में इनके बारे में पढ़ाया जाता है (जैसे एसेक्स वि0वि0, ब्रिटेन, एवं शिकागो वि0वि0, अमेरिका) ।

क्रिओल
पिजिन की भांति क्रिओल भी एक मिश्रित या वर्णसंकर (Hybrid) बोली है । यों समझा जा सकता है कि जब पिजिन समय के साथ परिष्कृत होकर स्थायित्व धारण कर लेती है तो वही क्रिओल कहलाने लगती है । यह माना जाता है कि अफ्रिकी, अमेरिकी देशों के अपेक्षया पिछड़े जनसमुदायों की भाषा पर यूरोपीय भाषाओं के अत्यधिक प्रभाव से क्रिओलों का जन्म हुआ है । आरंभ में वे जनसमुदाय अपनी मूल भाषा का ही प्रयोग करते रहे, किंतु व्यापारिक/व्यावसायिक संपर्क के कारण पिजिन का प्रयोग भी साथ-साथ चलता रहा । कालांतर में आने वाली पीढ़ियां पिजिन के आदी होते चले गये । इस प्रक्रिया के फलस्वरूप ऐसी भाषा व्यवहार में आई जिसने एक स्पष्ट व्याकरणीय ढांचा इख्तियार कर लिया और जिसका एक अच्छा-खासा शब्दसंग्रह भी तैयार हो गया । संबंधित मूल भाषाओं के नामों पर आधारित क्रिओल संबोधन से यह भाषा पुकारी जाने लगी ओर उन लोगों की आम भाषा ही बन गयी ।

विषय के जानकारों के अनुसार क्रिओलों की शब्दसंपदा मुख्यतः बाहरी (यूरोपीय) भाषा पर आधारित रहती है जब कि वाक्यविन्यास स्थानीय भाषा पर । स्थानीयता शब्दों के स्वरूप एवं अर्थ को प्रभावित करती है । अंग्रेजी-आधारित जमैकी पिजिन में शब्द रचना का एक दृष्टांत देखें: हैन-मिगल् = हथेली (Han-migl = hand+middle = palm) ।
पापुआ न्यू गिनी में अंग्रेजी और स्थानीय भाषा से प्राप्त टोक पिसिन (Toke Pisin = Talk Pidgin?) नाम की क्रिओल राष्ट्रीय भाषा बन चुकी है और देश की ‘असेम्बली’ और रेडियो प्रसारण में प्रयुक्त होती है । इसका एक वाक्य यह है:

“Sapos yu kaikai planti pinat, bai yu kamap strong olsem phantom.”
(सापोस यू काइकाइ प्लान्टी पीनाट, बाइ यू कमअप स्ट्रॉंग ओल्सम फैंटम ।)
“If you eat plenty of peanuts, you will come up strong like the phantom.”

अमेरिका में लूसियाना क्रिओल प्रचलन में है, जो फ्रांसीसी एवं अफ्रिकन भाषाओं पर आधारित है । अन्य कुछ क्रिओल भाषाएं ये हैं: Haitian, Mauritian, and Seychellois (French based); Jamaican, Guyanese, and Hawaiian Creole  (English based); Cape Verdian Criolou (Portuguese based) and Papiamentu in the Netherlands Antilles (Portuguese based, Spanish influenced) |

हिंग्लिश
इस आलेख में मेरा मुख्य उद्येश्य है हिंग्लिश पर अपनी टिप्पणी प्रस्तुत करना । पिजिन एवं क्रिओल की संक्षिप्त परिचयात्मक चर्चा के पीछे प्रयोजन यह रहा है कि इनके सापेक्ष हिंग्लिश को तौला जा सके । मेरे विचार में स्वतंत्र इंडिया दैट इज भारत (ह्विच इट इज नॉट!) की एक बड़ी, किंतु नकारात्मक, उपलब्धि रही है हिंग्लिश की प्रतिष्ठापना । हिंग्लिश हिंदी एवं अंग्रेजी के घालमेल से बनी एक वर्णसंकर भाषा है, जिसके बीज तो अंग्रेजी राज में पड़ चुके थे, लेकिन जिसका विकास एवं अधिकाधिक प्रयोग स्वतंत्रता के बाद ही हुआ ।

मैं यह निश्चित नहीं कर पा रहा हूं कि हिंग्लिश को पिजिन कहा जाए या क्रिओल । पिजिनों/क्रिओलों के प्रचलन में आने की जिन परिस्थितियों की बात कही गयी है वे अवश्य ही हिंग्लिश पर लागू नहीं होती हैं । अंग्रेजी राज से पहले से जो भी भाषाएं इस भूभाग में प्रचलित रही हैं वे उच्च दर्जे की रही हैं और अभिव्यक्ति के स्तर पर वे यूरोपीय भाषाओं से कमतर नहीं मानी जा सकती हैं । यहां के लोग आवश्यकतानुसार अंग्रेजी तथा अन्य भाषाएं सीखने में समर्थ थे और उन्होंने उन्हें सीखा भी । फिरंगियों के समय में ऐसी परिस्थितियां नहीं थीं कि किसी पिजिन/क्रिओल की जरूरत रही हो । उनका राज यही के लोग चला रहे थे, जो अंग्रेजी के साथ एक (मातृभाषा) या अधिक भाषाएं बोल/लिख सकते थे । तब फिर हिंग्लिश की जरूरत क्यों पड़ी ? अंग्रेजी शासन चलाने में योगदान दे रहे वे लोग इतने सक्षम रहे कि वे इन भाषाओं को साफ-सुथरे रूप में प्रयोग में ले सकते थे । तो फिर हिंग्लिश तथा उसी तर्ज पर ‘बांग्लिश’, ‘कन्नलिश’, ‘गुजलिश’ जैसी वर्णसंकर भाषाओं का प्रचलन तेजी से क्यों बढ़ा ?
हिंग्लिश की बात तो मैंने कर दी पर यह स्पष्ट नहीं किया कि यह आखिर है क्या ? यह आज के हिंदुस्तान के शहरी पढ़े-लिखे लोगों के बीच पूर्णतः प्रचलित हो चुकी एक भाषा है जिसका व्याकरणीय ढांचा तो हिंदी का है, किंतु शब्दसंग्रह कमोबेश अंग्रेजी का है । यह उन लोगों की देन है जो चमड़ी के रंग से तो हिंदुस्तानी हैं, लेकिन जो दिल से अंग्रेज बन चुके हैं । ये वे लोग हैं जो भारतीय भाषाओं को केवल मजबूरी में ही प्रयोग में लेना चाहते हैं, जिन्हें मूल/मातृ- भाषा की शब्दसंपदा समृद्ध करने में कोई दिलचस्पी नहीं है, और जिनके मुख से मौके पर हिंदी का उचित शब्द नहीं निकल सकता है । हिंदी में अंग्रेजी के शब्दों को जहां तबियत हुई वहां ठूंस देने में उन्हें कोई हिचक नहीं होती है । उन्हें इस बात पर कोई कोफ्त अथवा लज्जा अनुभव नहीं होती कि वे अपनी ‘तथाकथित’ मातृभाषा में भी ठीक से नहीं बोल सकते, विचारों को व्यक्त नहीं कर सकते । वे इस बात की तनिक भी चिंता नहीं करते हैं कि जिससे वे बात कर रहे हैं उसके भेजे में उनकी यह नयी भाषा घुस भी पा रही कि नहीं । हिंदीभाषियों का बृहत्तर जनसमुदाय उनकी भाषा वस्तुतः नहीं समझ सकता । हिंग्लिश में व्यक्त इस कथन पर गौर करें:

“चीफ़-मिनिस्टर ने नैक्सलाइट्स को डायलॉग के लिए इंवाइट किया है । लेकिन नैक्सलाइट्स अन्कंडिशनल मीटिंग के लिए तैयार नहीं हैं । उनका कहना है कि सरकार कांबिग आपरेशन बंद करे और उन्हें सेफ पैसेज दे तो वे निगोशिएशन टेबल पर आ सकते हैं ।”

इस कथन को सड़क पर का आम आदमी (man on the street) क्या वास्तव में समझ सकता है ? उसे मालूम है कि कांबिग क्या होती है और निगोशिएशन किसे कहते हैं, आदि ? जरा सोचें ।

इस देश में अंग्रेजीपरस्त एक ऐसा वर्ग उभरा है जिस पर ‘सावन के अंधे को हरा ही हरा दिखता है’ की कहावत चरितार्थ होती है । निःसंदेह उसके पास अंग्रेजी शब्दों का अपार शब्दभंडार है, किंतु आम हिंदुस्तानी का हाथ तो अंग्रेजी में तंग ही है न । क्या कोई सोचेगा कि क्यों उसे अंग्रेजी के लिए मजबूर किया जाए, क्यों नहीं अंग्रेजीपरस्त ही अपनी हिंदी बेहतर कर लेते हैं, उस बेचारे की खातिर ? खैर, यह सब होने से रहा ।

हिंग्लिश को इंडिया की उदीयमान, तेजी से जड़ें जमाती, और लोकप्रिय होती जा रही क्रिओल भाषा के तौर पर देखा जाना चाहिए । जहां के लोग अब भारत नाम भूलते जा रहे हों और देश को इंडिया बनाने का ख्वाब देख रहे हों, वहां साफ-सुथरी हिंदी के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता है । दुर्भाग्य से वहां अंग्रेजी भी नहीं चल सकती है, क्योंकि अधिसंख्य जन उसमें बातचीत नहीं कर सकते हैं । ऐसे में हिंग्लिश क्रिओल ही उपयुक्त विकल्प रह जाता है ।

अस्तु, मैं इस पक्ष का हूं कि हिंग्लिश – एक प्रकार की क्रिओल – को अब मान्यता दे देनी चाहिए । यह अभिजात वर्ग के मुंह पर कब्जा कर चुकी है; अब यह दिन-ब-दिन मजबूत होने जा रही है । आखिर सोचिए उर्दू और हिंदी में अंतर ही कितना है ? जब उर्दू को अलग भाषा का दर्जा मिला हुआ है, तो ठीक उसी तरह – जी हां उसी तरह – हिंग्लिश को मान्यता क्यों न दी जाए ? हिंदी से जितनी दूर उर्दू है उससे कम दूर हिंग्लिश नहीं है ! – योगेन्द्र जोशी