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14 सितंबर यानी हिन्दी दिवस – रस्मअदायगी का एक और दिन, बीते वर्षों की नाईं

सितम्बर 14, 2012

आज 14 सितंबर यानी ‘हिन्दी दिवस’ है, इंडिया दैट इज भारत की घोषित राजभाषा को ‘याद’ करने का दिन । यह वही दिन है जब 62 वर्ष पहले हिन्दी को संघ की राजभाषा घोषित किया गया ।

मैं आज तक नहीं समझ पाया कि इस देश के संविधान-निर्माताओं के मन में हिन्दी राजभाषा घोषित करने का उत्साह क्योंकर जागा? क्या इसलिए कि ‘अपनी देशज भाषा’ ही स्वाभिमान रखने वाले देश के राजकाज की भाषा होनी चाहिए ? मुझे अपना यह मत व्यक्त करने में संकोच नहीं होता है कि अपने संविधान-निर्माताओं में दूरदृष्टि का अभाव रहा होगा । मैं ऐसा इस आधार पर कहता हूं कि आज राजनैतिक दृष्टि से और राजभाषा की दृष्टि से देश के जो हालात हैं उनकी कल्पना उन्होंने नहीं की । उन्होंने संविधान लिखने में और राजभाषा घोषित करने में आदर्शों को ध्यान में रखा, न कि जमीनी हकीकत को । वे यह कल्पना नहीं कर सके कि भावी राजनेता किस हद तक सत्तालोलुप होंगे और अपने हितों को सही-गलत तरीकों से साधने में लगे रहेंगे । वे यह भी समझ पाये कि भावी जनप्रतिनिधि ‘बांटो और राज करो’ की नीति अपनाकर समाज के विभिन्न समुदायों को वोट-बैंकों में विभाजित कर देंगे ।

मैं संविधान की कमियों की चर्चा नहीं करना चाहता, लेकिन यह अवश्य कहूंगा कि हिन्दी को राजभाषा घोषित करने में संविधान-निर्माता उतावले जरूर रहे । वे इस बात को क्यों नहीं समझ सके कि देश में अंगरेजी का वर्चस्व घटने वाला नहीं, और वह देशज भाषाओं के ऊपर राज करती रहेगी ? वे क्यों नहीं समझ सके कि शासन में महती भूमिका निभाने वाला प्रशासनिक वर्ग हिंदी को कभी बतौर राजकाज की भाषा के पनपने नहीं देगा ? और यह भी कि वह वर्ग समाज में यह भ्रांति फैलाएगा कि अंगरेजी के बिना हम शेष विश्व की तुलना में पिछड़ते ही चले जाएंगे ?

हिंदी के राजभाषा घोषित होने के बाद शुरुआती दौर में अवश्य कुछ हलचल रही, किंतु समय के साथ उसे प्रयोग में लेने का उत्साह ठंडा पड़ गया । तथ्य तो यह है कि एक दशक बीतते-बीतते यह व्यवस्था कर ली गई कि अंगरेजी ही राजकाज में चलती रहे ।

आज स्थिति यह है कि स्वयं केंद्र सरकार हिंदी में धेले भर का कार्य नहीं करती । बस, अंगरेजी में संपन्न मूल कार्य का हिंदी अनुवाद कभी-कभी देखने को मिल जाता है । न तो राज्यों के साथ हिंदी में पत्राचार होता है, न ही व्यावसायिक संस्थाओं के साथ । ऐसी राजभाषा किस काम की जिसे इस्तेमाल ही नहीं किया जाना है ? आप कहेंगे कि शनैः-शनैः प्रगति हो रही है, और भविष्य में हिंदी व्यावहारिक अर्थ में राजभाषा हो ही जाएगी । जो प्रगति बीते 62 सालों में हुई है उसे देखकर तो कह पाना मुश्किल कि कितनी सदियां अभी और लगेंगी ।

इस बात पर गौर करना निहायत जरूरी है कि किसी भी भाषा का महत्त्व तभी बढ़ता है जब वह व्यावसायिक कार्यक्षेत्र में प्रयुक्त होती है । याद रखें कि अंगरेजी अंतरराष्ट्रीय इसलिए नहीं बनी कि वह कुछ देशों की राजकाज की भाषा रही है, बल्कि इसलिए कि संयोग से व्यापारिक कार्यों में वह अपनी गहरी पैठ बना सकी । आम आदमी को केंद्र सरकार के साथ पत्राचार या कामधंधे की उतनी बात नहीं करनी पड़ती है जितनी व्यावसायिक संस्थाओं से । अपने देश की स्थिति क्या है आज ? सर्वत्र अंगरेजी छाई हुई है । देखिए हकीकत:

1.     बाजार में समस्त उपभोक्ता सामग्रियों के बारे में मुद्रित जानकारी अंगरेजी में ही मिलती है । रोजमर्रा के प्रयोग की चीजों, यथा साबुन, टूथपेस्ट, बिस्कुट, तेल आदि के पैकेट पर अंगरेजी में ही लिखा मिलता है ।

2.     अस्पतालों में रोगी की जांच की रिपोर्ट अंगरेजी में ही रहेगी और डाक्टर दवा का ब्योरा अंगरेजी में ही लिखेगा, मरीज के समझ आवे या न, परवाह नहीं ।

3.     सरकारी बैंकों के नोटिस-बोर्डों पर हिन्दी में कार्य करने की बात लिखी होती है, लेकिन कामकाज अंगरेजी में ही होता है ।

4.     स्तरीय स्कूल-कालेजों – अधिकांशतः निजी एवं अंगरेजी माध्यम – में प्रायः पूरा कार्य अंगरेजी में ही होता है । जिस संस्था में हिन्दी में कार्य होता है उसे दोयम दर्जे का माना जाता है, और वहां गरीबी के कारण या अन्य मजबूरी के कारण ही बच्चे पढ़ते हैं । इन घटिया सरकारी स्कूलों के कई छात्रों को तो ठीक-से पढ़ना-लिखना तक नहीं हो आता !

5.     सरकारी संस्थाओं की वेबसाइटें अंगरेजी में ही तैयार होती आ रही हैं । अवश्य ही कुछ वेबसाइटें हिंदी का विकल्प भी दिखाती हैं, लेकिन वे बेमन से तैयार की गईं प्रतीत होती हैं । घूमफिर कर आपको अंगरेजी पर ही लौटना पड़ता है ।

6.     आयकर विभाग के पैन कार्डों तथा राष्ट्रीयकृत बैंकों के एटीएम/क्रैडिट कार्डों जैसे आम जन के दस्तावेजों में राजभाषा कहलाने के बावजूद हिन्दी इस्तेमाल नहीं होती ।

7.     हिन्दीभाषी क्षेत्रों के बड़े शहरों के दुकानों एवं निजी संस्थानों के नामपट्ट अंगरेजी में ही प्रायः देखने को मिलते हैं; हिंदी में तो इक्का-दुक्का अपवाद स्वरूप रहते हैं । लगता है कि होटलों, मॉलों एवं बहुमंजिली इमारतों के नाम हिन्दी में लिखना वर्जित है ।

8.     नौकरी-पेशे में अंगरेजी आज भी बहुधा घोषित एवं कभी-कभार अघोषित तौर पर अनिवार्य बनी हुई है ।

9.     विश्व के सभी प्रमुख देशों के राष्ट्राध्यक्षों/शीर्ष-राजनेताओं को पारस्परिक या सामूहिक बैठकों में अपनी भाषा के माध्यम से विचार रखते देखा जाता है । क्या इस देश के नुमाइंदे ऐसा करते हैं ? पूर्व प्रधानमंत्री बाजपेई अवश्य अपवाद रहे हैं ।

इस प्रकार के तमाम उदाहरण खोजे जा सकते हैं, जिनसे स्पष्ट होता है कि वास्तविकता में अंगरेजी ही देश पर राज कर रही है, और आगे भी करती रहेगी । ‘क्यों ऐसा है’ का तार्किक कारण कोई नहीं दे सकता है । कुतर्कों के जाल में प्रश्नकर्ता को फंसाने की कोशिशें सभी करते हैं ।

दरअसल देशवासियों के लिए अंगरेजी एक उपयोगी भाषा ही नहीं है यह सामाजिक प्रतिष्ठा और उन्नति का द्योतक भी है । यह धारणा सर्वत्र घर कर चुकी है कि अन्य कोई भाषा सीखी जाए या नहीं, अंगरेजी अवश्य सीखी जानी चाहिए । अंगरेजी माध्यम विद्यालयों का माहौल तो छात्रों को यही संदेश देता है । अंगरेजी की श्रेष्ठता एवं देशज भाषाओं की हीनता की भावना तो देश के नौनिहालों के दिमाग में उनकी शिक्षा के साथ ही बिठा दी जाती है ।

मेरे देखने में तो यही आ रहा है कि हिन्दी एवं क्षेत्रीय भाषाएं महज बोलने की भाषाएं बनती जा रही हैं । लिखित रूप में वे पत्र-पत्रिकाओं एवं कतिपय साहित्यिक कृतियों तक सिमट रही हैं । रोजमर्रा के आम जीवन का दस्तावेजी कामकाज तो अंगरेजी में ही चल रहा है । कहने का अर्थ है कि सहायक राजभाषा होने के बावजूद अंगरेजी ही देश की असली राजभाषा बनी हुई है ।

मुझे हिन्दी दिवस मनाने का कोई औचित्य नहीं दिखता । हिन्दी को लेकर हर वर्ष वही रटी-रटाई बातें कही जाती हैं । मंचों से कही जाने वाली ऊंची-ऊंची बातों का असर श्रोताओं पर नहीं पड़ता है, और भी वक्ता इस पर मनन नहीं करता है कि कही गयी बातों को तो वह स्वयं ही अमल में नहीं लाता । गंभीर चिंतन वाले लोग भाषणबाजी नहीं करते बल्कि धरातल पर कुछ ठोस करने का प्रयास करते हैं । सरकारी तंत्र में कितने जन हैं ऐसे ? – योगेन्द्र जोशी

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