Home

हिन्दीः मेरे निजी अनुभव – (१) पेरिस में

सितम्बर 22, 2008

दो दशक से अधिक का समय बीत चुका है जब मुझे इस बात का एहसास पहली बार हुआ कि अपनी मौलिक भाषाओं के प्रति हम हिंदुस्तानी कितने बेपरवाह हैं और हम उन्हें कितने निरादर भाव से दोयम दर्जे का मान बैठे हैं । यह एहसास अपने इंग्लेंड-प्रवास के दौरान पेरिस-भ्रमण के समय के भाषायी अनुभव से हुआ था । उस घटना का विवरण एक लघुकथा के रूप में मैंने अन्यत्र दिया है । उस समय मुझे लगा कि मुझे अपने विविध कार्यों में हिन्दी को यथासंभव प्रयोग में लेना चाहिए । बाद में स्वदेश लौटने पर मैंने अपने इस विचार का शनैः-शनैः कार्यान्वयन आरंभ कर दिया ।

विज्ञान (भौतिकी) जैसे विषय के अध्यापन एवं अनुसंधान के क्षेत्र में अपने देश में हिन्दी में कोई लिखित कार्य नहीं कर सकता था । मेरा तत्संबंधित तकनीकी लेखन उसी भाषा में संभव था जो प्रचलन में है, यानी अंग्रेजी । परंतु अध्यापन में हिन्दी का प्रयोग, खास तौर पर खिचड़ी भाषा, जिसमें तकनीकी शब्द तो अंग्रेजी के हों पर जिसका व्याकरणीय स्वरूप पारंपरिक हिन्दी का हो, का प्रयोग मेरे लिए अवश्य संभव था । उन दिनों मेरी स्नातकोत्तर कक्षाओं में दूरदराज के अहिन्दीभाषी छात्र भी हुआ करते थे । ये छात्र अधिकांशतः बंगाल, आंध्र तथा तमिलनाडु से आते थे । मैंने अनुभव किया कि इनमें से बंगाल के छात्रों की हिन्दी अपेक्षया बेहतर होती थी और तमिलनाडु के छात्रों की सर्वाधिक कमजोर । उस क्षेत्र के कई छात्रों के लिए तो हिन्दी बोलना-समझना भी कभी-कभी संभव नहीं हो पाता था । मेरे देखने में दिलचस्प बात यह होती थी कि वे अंग्रेजी में भी बहुत सहूलियत नहीं अनुभव करते थे । ये छात्र एक माने में अपवाद थे । अन्यथा प्रायः सभी को हिन्दी में बात करने और समझने में अधिक सुविधा होती थी ।

स्नातकोत्तर कक्षाओं के कुछ छात्रों की शैक्षणिक पृष्ठभूमि अवश्य ही अंग्रेजी की रहती थी और वे लाभ की स्थिति में रहते थे । परंतु अधिकांश के लिए हिन्दी का सहारा आवश्यक था । इनमें हिन्दीभाषी ही नहीं अपितु बांग्ला- तथा तेलुगु-भाषी भी शामिल थे । इसे इस बात से समझा जा सकता है कि कक्षा में जब उन्हें किसी प्रायोगिक विषय से संबंधित मुद्दे पर छोटा-मोटा व्याख्यान देना होता था (यह उनके पाठ्क्रम का एक अंग होता था), तो अंग्रेजी से शुरुआत करते हुए वे हिन्दी पर उतर आते थे । हम अध्यापकों की ओर से उन्हें इस बात की छूट थी कि जिस माध्यम में उन्हें सुविधा हो उसका वे प्रयोग करें । वास्तव में प्रायोगिक कक्षाओं में प्रायः सभी अध्यापक छात्रों से हिन्दी में ही विषय-संबंधी बातें करते थे । अध्यापन के अपने उस काल में मुझे कई छात्रों से यह सुनने को मिला करता था कि उन्हें विषय की बेहतर समझ हो पाती, यदि उन्हें हिन्दी में सुबोध पुस्तकें उपलब्ध होतीं । – योगेन्द्र (चर्चा जारी रहेगी ।)

One Response to “हिन्दीः मेरे निजी अनुभव – (१) पेरिस में”

  1. Praveen Says:

    आपने जो लिखा वही सच्चाई है और देश को प्रगति की राह पर भाषा ही ले जा सकती है इससे प्रतिभाहों का दमन नहीं होगा


टिप्पणी करे