हिन्दी दिवस, 2019 – अंगरेजी का वर्चस्व बना रहेगा आप चाहें या न चाहें!
सितम्बर 14, 2019
अंगरेजी का वर्चस्व
इसमें दो राय नहीं हैं कि अंगरेजी इस देश की देशी तथा मौलिक भाषाओं के ऊपर हावी है। अंगरेजी का ये वर्चस्व स्थायी हो चुका है या नहीं मैं कह नहीं सकता, लेकिन इतना अवश्य कहूंगा कि इसमें फिलहाल कोई बदलाव नहीं आने जा रहा है। भविष्य किसी ने नहीं देखा, इसलिए दशकों के बाद भी यही स्थिति बनी रहेगी या नहीं कह पाना कठिन है। व्यक्तिगत तौर पर मेरा यही मानना है कि अंगरेजी इस देश के जनमानस में अपनी जड़ें बहुत गहरे जमा चुकी है, अतः जब तक देश में कोई जबरदस्त भाषाई झंझावात न चले तब तक स्थिति बदलेगी नहीं। आप यदि वर्तमान स्थितियों पर गौर करें तो यही अनुभव करेंगे कि देशवासी स्वयं को अंग्रेजी वर्चस्व की इस वस्तुस्थिति के अनुकूल ढालते जा रहे हैं। ऐसे में उक्त झंझावात कैसे, कहां से उठेगा भला ?
इस विषय में मेरे मन में क्या विचार उठते हैं उसका बखान मैं सुचर्चित “मैकॉले शिक्षा नीति” से करता हूं। अपनी नीति के बारे में मैकॉले महोदय ने अधोलिखित उद्गार व्यक्त किए थेः
“We must do our best to form a class who may be interpreters between us and the millions whom we govern; a class of persons Indian in blood and colour, but English in taste, in opinions, words, and intellect.” (हमारे तथा जिन पर हमारा शासन है ऐसे करोड़ों जनों के बीच दुभाषिए का कार्य करने में समर्थ एक वर्ग तैयार करने के लिए हमें भरपूर कोशिश करनी है; उन लोगों का वर्ग जो खून एवं रंग में भारतीय हों, लेकिन रुचियों, धारणाओं, शब्दों एवं बुद्धि से अंग्रेज हों।)
– T.B. Macaulay, in support of his Education Policy as presented in 1835 to the then Governor-General, Willium Bentick.
[उक्त उद्धरण मैंने सुंदरलाल, भारत में अंग्रेजी राज, (हिंदी में, अंग्रेजी में पाद-टिप्पणियों के साथ) तृतीय खंड, पृष्ठ 1140-42; ओंकार प्रेस, इलाहाबाद, 1938, से लिया है जो मेरे पूर्व-विश्वविद्यालय, बी.एच.यू., के ग्रंथागार में उपलब्ध रही है।]
हिन्दी का राजभाषा बनना कितना सार्थक?
स्वतंत्रता के बाद देश की आधिकारिक भाषा क्या हो इस पर बहस चली और अंततः हिन्दी को राजभाषा चुना गया। उस समय तत्संबंधित निर्णय लेने के लिए संगठित संविधान सभा के अध्यक्ष डा. राजेन्द्र प्रसाद थे जिन्हें नये संविधान के अनुरूप देश का प्रथम राष्ट्रपति चुने जाने का गौरव प्राप्त हुआ। उस बैठक में भाव-विभोर होकर उन्होंने कहा था:
“आज पहली ही बार ऐसा संविधान बना है जब कि हमने अपने संविधान में एक भाषा रखी है, जो संघ के प्रशासन की भाषा होगी। इस अपूर्व अध्याय का देश के निर्माण पर बहुत प्रभाव पड़ेगा। … अंग्रेजी के स्थान पर हमने एक भारतीय भाषा को अपनाया। इससे अवश्य ही हमारे संबंध घनिष्ठतर होंगे, विशेषतः इसलिए कि हमारी परंपराएं एक हैं, हमारी संस्कृति एक ही है और हमारी सभ्यता में सब बातें एक ही हैं। … हमने यथासंभव बुद्धिमानी का कार्य किया है और मुझे हर्ष है, मुझे प्रसन्नता है और मुझे आशा है कि भावी संतति इसके लिए हमारी सराहना करेगी।”
ज्ञातव्य है कि संविधान सभा की भाषा विषयक बहस अधिकांशतः अंग्रेजी में ही संपन्न हुई और तत्संबंधित दस्तावेज अंग्रेजी में ही तैयार हुआ, जो 278 पृष्ठों में छपा है। सभा की बैठक में अध्यक्ष के उद्गार भी, मेरे अनुमान से, अंग्रेजी में ही अभिव्यक्त थे। ऊपर केवल कुछ चुने हुए वाक्य उल्लिखित हैं। अंग्रेजी मूल का मेरा स्वयं-संपादित अनुवाद स्वीकार्य होना चाहिए ऐसी मैं आशा करता हूं।
संविधान सभा के अध्यक्ष का संघ की भाषा के प्रति आशावाद कितना सार्थक सिद्ध हुआ इसका आकलन करना कठिन नहीं है। तब कदाचित् सभा के सदस्यों को इस बात का अंदाजा नहीं रहा होगा कि भविष्य में वह सब नहीं होने जा रहा है, जिसकी सुखद कल्पना वे उस काल में कर रहे थे। अध्यक्ष द्वारा कहे गये कुछएक वाक्यों/वाक्यांशों और उन पर मेरी टिप्पणियों पर गौर करें:
(1) “अंग्रेजी के स्थान पर हमने एक भारतीय भाषा को अपनाया।” ठीक किया? शायद नहीं। माफ करें, वैयक्तिक स्तर पर यह मेरे चाहने न चाहने का सवाल नहीं है। जो हकीकत सामने है वह यही कहती है कि यह सोच गलत साबित हो चुकी है।
मुझे उक्त बात कहते खुशी नहीं है; परन्तु सच तो सच होता है, आप चाहें या न चाहें।
(2) “इससे अवश्य ही हमारे संबंध घनिष्ठतर होंगे, विशेषतः इसलिए कि हमारी परंपराएं एक हैं, हमारी संस्कृति एक ही है और हमारी सभ्यता में सब बातें एक ही हैं।” तब क्यों अंगरेजी के पक्षधर यह दलील देते हैं कि पूरे देश में यदि कोई भाषा प्रचलन में है तो वह अंगरेजी ही है ? क्यों कहते हैं कि देश भर का राजकाज अंगरेजी के बिना नामुमकिन है, इत्यादि? यही कहा जाएगा कि डा. राजेन्द्र प्रसाद भविष्य की सही तस्वीर नहीं खींच पाए।
देश का राजकाज तो 69 सालों बाद भी अंगरेजी में ही चल रहा है और सरकारें अंगरेजी को किसी न किसी बहाने आगे बढ़ा रही हैं। सरकारों के साथ आम जनता भी यही मानती है कि रोजीरोटी तो अंगरेजी से ही मिलेगी ! क्या ये बात सच नहीं है?
(3) “हमने यथासंभव बुद्धिमानी का कार्य किया है।” जिस भाषा की उपस्थिति देश के शासन-प्रशासन में 69 वर्षों के बाद भी न के बराबर हो उसे राजभाषा का दर्जा देना कैसे बुद्धिमत्ता हो सकती है? हमारे नीतिनिर्धारकों और प्रशासकों का पूरा जोर अंग्रेजी की अनिवार्यता सिद्ध करने में लगा रहता है। वे हिंदी में धेले भर का भी काम करने को तैयार नहीं। जो भी काम हो रहा है वह खानापूर्ति से अधिक कुछ भी नहीं। उस निर्णय को आज के परिप्रेक्ष में बुद्धिमानी की बात मानना ठीक नहीं कहा जा सकता।
(4) “मुझे आशा है कि भावी संतति इसके लिए हमारी सराहना करेगी।” आज की जो पीढ़ी भारतीय भाषाओं को दोयम दरजे का मानकर चल रही हैं और कहती फिर रही है कि उनकी वैयक्तिक प्रगति और देश का समग्र विकास अंगरेजी के बिना संभव ही नहीं, वह पीढ़ी क्या वास्तव में संविधान निर्माताओं के निर्णय की सराहना कर रही है? अगर गांधी की प्रशंसा करते हुए उनकी शिक्षाओं के अनुसार चलने की सलाह किसी को दी जाए तो वह मानेगा क्या? वह सीधे-सीधे कहेगा आज के समय में गांधी के विचारों को अपनाना मूर्खता होगी। ठीक उसी प्रकार की प्रतिक्रिया राजभाषा हिन्दी को अपनाने की सलाह पर मिलेगी। आज की युवा पीढ़ी मुख से भले ही नकारात्मक कुछ न बोले, लेकिन अंग्रेजी के वर्चस्व को जीवन की वास्तविकता मानती जरूर है।
अंगरेजों की चतुर शासकीय नीति
इस बात पर गौर करें कि छोटे-से देश के अंगरेजों ने इस विशाल देश पर राज किसी खास खूनखराबे से नहीं किया। खूनखराबा जो भी हुआ बाद में स्वतंत्रता-प्राप्ति के लिए हुआ। अंगरेज यह भांप चुके थे कि यहां की जनता को आसानी से गुलाम बनाया जा सकता है, यहीं के लोगों की मदद से ! उनकी मैकॉले नीति बेहद कारगर सिद्ध हुई जो आज भी देश में अंगरेजी का वर्चस्व बनाए हुए हैं। इस नीति को केंद्र में रखते हुए मैंने अपने ब्लॉग में बहुत पहले दो लेख लिखे थे (देखें पोस्ट दिनांक 16 नवंबर, 2009, एवं पोस्ट दिनांक 17 जनवरी, 2010)|
उन्हीं लेखों से मैं अधोलिखित बातें उद्धृत कर रहा हूं:
(1) … हमने अंग्रेज विद्वानों की एक जाति तैयार कर ली, जिसे अपने देशवासियों के प्रति नहीं के बराबर या अत्यल्प सहानुभूति है। (प्रोफेसर एच. एच. विल्सन, हाउस अव् लॉर्डज की चयनित समिति के समक्ष, 5 जुलाई, 1863।)
(2) … मैं यह मत व्यक्त करने का जोखिम उठा रहा हूं कि विलियम बैंटिक का पूरब में अंग्रेजी भाषा एवं अंग्रेजी साहित्य को बढ़ावा देने तथा फैलाने का दोहरा कार्य … ठोस नीति की चतुराई भरी शानदार तरकीब, जिसने भारत में ब्रिटिश राज को विशिष्टता प्रदान की है। (डा. डफ्, भारतीय राज्यक्षेत्र से संबंद्ध लॉर्डज की द्वितीय रिपोर्ट में, 1853।)
(नोट – इन कथनों के मूल अंग्रेजी पाठ मेरे उपर्युक्त पोस्टों में उपलब्ध है।)
मेरा मानना है कि इस देश में मैकॉले की नीति अपने उद्येश्यों में पूर्णतः सफल रही है। उस नीति के तहत एक ऐसा प्रशासनिक वर्ग तैयार हो गया जो अंग्रेजों, अंग्रेजियत एवं अंग्रेजी के प्रति समर्पित था और आज भी भी है।
देश के मध्यवर्ग का अंग्रेजी-मोह
भारत का मध्यवर्ग, विशेष तौर पर उच्च मध्यवर्ग अंगरेजी का दीवाना है इसे वे महसूस कर सकते जो उनके आचरण पर गौर करें। देश में अंगरेजी माध्यम विद्यालयों की बाढ़, उनका गांव-देहातों तक विस्तार, और अधिकांश सरकारी विद्यालयों का गिरता स्तर इसी तथ्य का द्योतक है।
आप यदि रोजमर्रा के “कामचलाऊ” बोलचाल की भाषा के रूप में हिन्दी के प्रचलन की बात करें तो अवश्य ही हिन्दी आगे बढ़ रही है। किन्तु वह राजभाषा के तौर पर स्थापित होगी यह मानने का पर्याप्त आधार मुझे कहीं दिखाई नहीं देता। और कैसी हिन्दी है वह जो विस्तार पा रही है? ऐसी हिन्दी जिसमें अंगरेजी के शब्दों की भरमार हैं, जिसमें हिन्दी की गिनतियां गायब हैं, रंगों की बात हो या शरीर के अंगों की बात आदि अंगरेजी के शब्द प्रयुक्त हो रहे हैं, जिसमें “एंड, बट, ऑलरेडी” आदि जगह पा चुके हैं।
“मैं वॉक करने जा रहा हूं” जैसे वाक्य हिन्दी के माने जाएं क्या? ऐसी ही होगी भविष्य की हिन्दी ! ऐसी भाषा से देश के कई कोनों में काम चल जाता है, दरअसल अंगरेजी से बेहतर, किंतु इसके आधार पर हिन्दी प्रतिष्ठित हो रही कहना गलत होगा ! – योगेन्द्र जोशी