दक्षिण भारत यात्रा और हिन्दी: द्वितीय भाग, चेन्नै में
मार्च 1, 2009
कन्याकुमारी – विवेकानंद रॉक मेमॉरिअल, शिला स्मारक
जब मैं पहली बार (जुलाई १९७३ में, जैसा मुझे याद है) चेन्नै, यानी तत्कालीन मद्रास, गया था तो मुझे वहां हिन्दी के विरुद्ध एक प्रकार का द्वेष या उदासीनता का भाव देखने को मिला था । रेलवे स्टेशन पर हिन्दी में जानकारी पाना मुझे असंभव-सा लगा था । पूछताछ कार्यालय और टिकट खिड़की पर हिन्दी में कुछ पूछने पर संबंधित कर्मचारी के मुख पर एक प्रकार की नाखुशी का भाव मुझे देखने को मिला था । उस समय मैं स्वयं हिन्दी के प्रति विशेष जागरूक नहीं था और अंग्रेजी के प्रयोग से बचने का विचार भी मेरे मन में नहीं हुआ करता था । (हिन्दी और भारतीय भाषाओं के प्रति मौजूदा विचार कई वर्षों बाद मेरे मन में उपजे थे ।) सच तो यह है कि हिन्दी के प्रति वहां व्याप्त विरोध-भाव तब मेरे लिए चिंता या चिंतन का विषय ही नहीं था । अंग्रेजी से मेरा काम उस समय चल गया था और मैं संतुष्ट था । यह तो आज है कि मैं उस घटना को नये नजरिये से देखता हूं ।
वह ऐसा समय था जब तमिलनाडु में कुछ काल पहले लगी हिन्दी-विरोध की आग शांत नहीं हुयी थी । वस्तुतः उस राज्य में हिन्दी विरोध काफी पुराना रहा है । विकीपीडिया पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार यह विरोध १९३८ से ही वहां चलता आ रहा था । ध्यान दें कि वर्ष १९५० में संविधान संशोधन के द्वारा हिन्दी को राजभाषा का दर्जा दिया गया था । तब यह संकल्प लिया गया था कि देश के नये संविधान के १५ वर्ष पूरे होने के साथ ही, अर्थात् २६ जनवरी, १९६५, के बाद, देश का राजकाज पूरी तरह हिन्दी में किया जायेगा । तब से ही उस क्षेत्र में हिन्दी-विरोध की हवा रह-रहकर बहती रही थी । इस विरोध में वहां की डी.एम.के. पार्टी की भूमिका प्रमुख रही थी । उस दल के द्वारा १९६५ में आयोजित आंदोलन का ही परिणाम था कि तत्कालीन केंद्रीय सरकार को एक और संविधान संशोधन के द्वारा यह सुनिश्चित करना पड़ा कि जब तक भारतीय संघ के सभी राज्य हिन्दी के पक्ष में तैयार न हो जावें तब हिन्दी के साथ अंग्रेजी भी उसकी ‘सहयोगी भाषा’ के रूप में राजकीय कार्य में प्रयुक्त होती रहेगी । इस निर्णय ने हिन्दी को अनिश्चित काल के लिए वास्तविक राजभाषा के तौर पर प्रतिष्ठित होने से वंचित कर दिया । अवश्य ही १९६५ के दौरान उत्तर भारत में तब अंग्रेजी-विरोध की एक लहर चली थी, किंतु वह अंततः निष्प्रयोजन ही सिद्ध हुयी । बाद के वर्षों में तो हिन्दी-भाषियों ने बढ़चढ़कर अंग्रेजी की अहमियत को मान्यता दे दी । आज हमारे सामने न नौ मन तेल होगा और न राधा नाचेगी वाली स्थिति हिन्दी को लेकर है । व्यावहारिक दृष्टि से अंग्रेजी ही अब इस देश की राजभाषा बन गयी है और अब उससे मुक्ति की संभावना न के बराबर है । अस्तु, यह मुद्दा स्वयं में एक गंभीर चर्चा का विषय है ।
हां तो उस काल में डी.एम.के. पार्टी ने वहां की जनता के मन में यह भय बिठा दिया था कि हिन्दी के राजभाषा बन जाने पर हिन्दीभाषियों का तमिलों के ऊपर वर्चस्व स्थापित हो जायेगा और इससे उन्हें नौकरी-पेशे में गंभीर नुकसान भुगतना पड़ेगा । निस्संदेह तब के जोरदार हिन्दी-विरोध ने डी.एम.के. दल को राजनैतिक लाभ की स्थिति में ला खड़ा कर दिया और उसे १९६७ में सत्ता तक पहुंचा दिया । उस समय मिले राजनैतिक हार से क्रांग्रेस पार्टी फिर कभी नहीं उबर पायी ।
यहां पर मैं एक टिप्पणी करना चाहूंगा कि जब भी किसी भाषा को व्यवहार में महत्त्व दिया जाता है, तब कुछ लोग अधिक लाभान्वित होते हैं तो कुछ कम । हिन्दी के संदर्भ में भी ऐसी स्थिति पैदा होगी ही कि अहिन्दीभाषियों को किंचित् असुविधा हो । लेकिन जिस बात पर लोग ध्यान नहीं देते वह यह है कि यह बात अंग्रेजी के संदर्भ में भी सही है और वस्तुतः कुछ अधिक गंभीर ही है । क्या यह सच नहीं है कि मौजूदा हालत में वे लोग लाभ की स्थिति में हैं जो अंग्रेजी सीखे हैं या सीखने के लिए जिनके पास आवश्यक संसाधन हैं ? वस्तुतः एक तमिल को अंग्रेजी भी वैसे ही सीखनी पड़ती है जैसे उसे हिन्दी सीखनी पड़ती । सच तो यह है कि किसी भी भारतीय के लिए अंग्रेजी सीखना अन्य किसी भारतीय भाषा को सीखने से अधिक कठिन है । यह भी सच है कि आम तमिल को तो अंग्रेजी के चलन से भी असुविधा ही है । फिर भी वहां अंग्रेजी का वैसा विरोध नहीं हुआ जैसे हिन्दी का विरोध ।
१९७३ की मेरी उस प्रथम दक्षिण-भारत यात्रा के समय पूर्व में आरंभ हुए उसी विरोध का असर मुझे देखने को मिल रहा था ऐसा मैं सोचता हूं । तमिल क्षेत्र का वैसा हिन्दी विरोध मैंने दक्षिण भारत में अन्य भागों में नहीं देखा । मेरी उस यात्रा का वास्तविक गंतव्य स्थान बेंगलोर (अब बंगलुरु) था, जहां में करीब एक माह के प्रवास पर शैक्षिक कार्य से गया था । यद्यपि तब बंगलुरु में हिन्दी का प्रचलन खास तो मुझे नहीं लगा था, तथापि चेन्नै जैसा विरोध-भाव वहां नहीं था । यह सब कितना सच था इसका दावा मैं नहीं कर सकता, क्योंकि संयोग से मेरे अनुभव कुछ यूं रहे होंगे जिनका उल्लेख मैंने किया है । बंगलुरु में मैंने वहां तब चलन में आ चुके आटो-रिक्शों के साथ हिन्दी ही प्रयोग में ली ऐसा याद आता है । शायद किसी-किसी दुकान में भी हिन्दी का प्रयोग हुआ होगा ।
बंगलुरु प्रवास के बाद वाराणसी वापस लौटते समय मैंने कन्याकुमारी, मदुरै तथा रामेश्वरम् की यात्रा की थी और उन स्थलों पर मैंने एक-एक दो-दो रातें गुजारीं भी । ये सभी स्थान तमिलनाडु में ही हैं, फिर भी कन्याकुमारी तथा रामेश्वरम् के अनुभव अपेक्षया बेहतर थे । इसका कारण कदाचित् यह रहा होगा कि इनमें से पहली जगह मुख्यतः एक पर्यटन स्थल था, जब कि दूसरा एक तीर्थस्थल । वहां कुछ उत्तर भारतीय (विशेषतया गुजराती-मारवाड़ी) भोजनालय आदि जैसे छोटे-मोटे व्यवसाय में लगे हुए थे और हिन्दी को भी प्रयोग में लेते थे ।
उस काल का हिन्दी-विरोध बाद की यात्राओं के दौरान मुझे नहीं दिखा । आज स्थिति काफी भिन्न है । वहां मैंने हाल में क्या अनुभव किया इसकी चर्चा भी में करूंगा अगली पोस्टों में । – योगेन्द्र
रामेश्वरम् – पूर्वी समुद्रतट पर समुद्रस्नान
रामेश्वरम् मंदिर पश्चिमी प्रवेशद्वार
मार्च 2, 2009 at 4:22 पूर्वाह्न
मैं भी १९७१ में गया था कुछ इसी तरह का अनुभव हुआ था।
मई 30, 2013 at 5:20 अपराह्न
योगेन्द्र जी आपके दक्षिण में हिन्दी से संबंधित विचार मेरे मेल पते पर भेज सकें तो अच्छा है। ‘दक्षिण और हिन्दी’ की बृहत् योजना में आपके विचारों का संकलन हो तो कैसा रहेगा।
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