दक्षिण भारत यात्रा और हिन्दी: प्रथम भाग
फ़रवरी 19, 2009
सुदूर दक्षिणी राज्य तमिलनाडु के दो-एक पर्यटक स्थलों की दश-द्वादश-दिवसीय यात्रा के पश्चात् मैं अभी हाल ही में लौटा हूं । मैं पारिवारिक सदस्यों के चार जनों के दल में शामिल था । हम लोग चेन्नै होते हुए रामेश्वरम्, कन्याकुमारी तथा मदुरै तक हो आये और फिर चेन्नै दो दिन रुककर वापस वाराणसी लौट आये । इस आलेख में अपनी यात्रा का विवरण प्रस्तुत करना मेरा इरादा नहीं है; मैं हिन्दी को लेकर अर्जित अपने अनुभवों का उल्लेख भर करना चाहता हूं ।
मेरे लिए तमिलनाडु के उक्त स्थलों की यात्रा कोई नयी बात नहीं थी । मैंने आज से करीब पैंतीस वर्ष पूर्व, यानी उन्नीस सौ तिरहत्तर, में पहली बार इन नगरों का दर्शन किया था । तब से अब तक मैं कुल पांच बार कन्याकुमारी और तीन-तीन बार रामेश्वरम् एवं मदुरै की यात्रा कर चुका हूं । हर बार आना-जाना चेन्नै के रास्ते ही हुआ है, जहां मैं अन्य मौकों पर भी गया हूं । पैंतीस सालों के लंबे अंतराल में कन्याकुमारी नगरी उल्लेखनीय रूप से बदल चुकी है । थोड़ा बहुत बदलाव तो रामेश्वरम् में भी स्वाभाविक रूप से हुआ ही है । हिन्दी संबंधी मेरा अब तक वहां क्या अनुभव रहा इस बात की चर्चा मैं एक अजनबी से अपनी मुलाकात के जिक्र के साथ करता हूं, जो चेन्नै (तत्कालीन मद्रास) सेंट्रल रेलवे स्टेशन पर तब हुई थी जब मैं पहली बार वहां गया था । पूरा वाकया कुछ यूं है:-
तब मुझे वस्तुतः बेंगलोर (अब बंगलुरु) जाना था । मैं वाराणसी से चेन्नै संध्याकाल पहुंचा था और मुझे दूसरे ही दिन तड़के सुबह की गाड़ी से गंतव्य को जाना था । विश्वविद्यालयीय अध्यापन के अपने व्यावसायिक जीवन में मैंने तब कदम ही रखे थे । लंबी यात्राओं और अपरिचित शहर में ठहरने का तब तक मुझे कोई अनुभव नहीं था । अतः किसी होटल-धर्मशाला में टिकने के बजाय मैंने स्टेशन के प्लेटफार्म पर ही रात के कुछ घंटे गुजार देने का निर्णय लिया । प्लेटफार्म पर कोई भीड़भाड़ नहीं थी । मैंने एक किनारे दीवाल से लगकर चादर फैलाई और उसके ऊपर लेट गया ।
कुछ ही देर में उम्र से प्रौढ़ एक अजनबी यात्री भी वहां पहुंचा । उसने भी पास ही चादर फैलाई और मेरी तरह आराम फरमाने लगा । कुछ ही देर बाद हम दोनों के बीच बातचीत का सिलसिला चल पड़ा । आज मैं यह नहीं बता सकता कि हम अपरिचितों के बीच बातचीत की शुरुआत कैसे हुई; मुझे यह भी ठीक-से याद नहीं कि क्या-क्या और कितनी बातें हुयीं । हां वार्तालाप का महत्त्वपूर्ण सारांश मेरे स्मृतिपटल पर तब अवश्य अंकित हो गया, जिसका हिन्दी की बात करते समय मुझे ध्यान हो आता है । मैं समझता हूं कि हम दोनों ने सहज जिज्ञासा से एक-दूसरे से पूछा होगा कि कहां से आ रहे हैं और कहां, किस गाड़ी से जाने वाले हैं । कदाचित् बातचीत की शुरुआत अंग्रेजी से हुयी होगी । शायद जल्दी ही वह व्यक्ति मुझे हिन्दीभाषी पाकर, और स्वयं हिन्दी बोलने में सक्षम होने के कारण, हिन्दी में बात करने लगा होगा । बहुत संभव है कि उसे अंग्रेजी के बदले हिन्दी में बोलने में अधिक सहजता लगी हो । मेरे लिए तो हिन्दी अपेक्षया सरल थी ही । अंग्रेजी का अभ्यास तो व्यावसायिक कार्य में, और भी अधिकतर लिखित रूप में, किया जाता रहा है । अधिकतर लोगों को बोलने का अभ्यास कम ही रहता है ।
बातचीत के दौरान उस व्यक्ति ने बताया कि वह केरलावासी है और व्यापारिक कार्य से विभिन्न स्थानों की यात्रा करता है । मैंने उसके हिन्दी बोलने पर आश्चर्य व्यक्त किया तो उसने बताया कि वह उस समय असम तक जाने के उद्येश्य से अपनी गाड़ी का इंतजार कर रहा है । इस प्रकार की यात्रा करना उसके जीवन का अंग बन चुका था । उसके कथनानुसार उसे व्यापार के सिलसिले में कई राज्यों से होते हुए गुजरना पड़ता है और अलग-अलग स्थलों पर अलग-अलग लोगों से संपर्क करना पड़ता है और उनकी मदद लेनी पड़ती है, चाहे वह भोजन-पानी की बात हो, या फिर रात्रि-विश्राम की, या शहरों-कस्बों के भीतर आवागमन के साधनों की । इन सभी स्थलों की स्थानीय भाषा का ज्ञान अर्जित कर पाना असंभव-सा ही रहता है । उसने कहा कि ऐसे मौकों पर वह अंग्रेजी के बदले हिन्दी अधिक उपयोगी पाता है । मैंने उससे कहा कि हिन्दी को लेकर चेन्नै में मुझे अभी तक कोई उत्साहवर्धक अनुभव नहीं हो पाये हैं और यह कि लोगों का हिन्दी के प्रति विरोध-भाव है ऐसा मुझे प्रतीत होता है । उसने मेरी बात से सहमत होते हुए कहा कि तमिलनाडु में हिन्दी का तीव्र विरोध है और उसके पीछे वहां की राजनीति ही प्रमुख कारण रहा है । इसके विपरीत केरला में ऐसी कोई खास बात नहीं है । उस व्यक्ति के अनुसार केरला के लोग अपनी रोजी-रोटी के लिए देश के किसी भी कोने में जाने तथा वहां काम करने के लिए तैयार रहते हैं और इस प्रकार के विरोधों को वे अपने हितों के विरुद्ध पाते हैं । आप तौर पर हिन्दी सीखना उनके लिए लाभप्रद रहता है, महज भावनात्मक कारणों से हिन्दी अथवा अन्य बातों का विरोध करना उन्हें मूर्खतापूर्ण लगता है ।
उस पहली चेन्नै-यात्रा में मैंने हिन्दी के बाबत क्या अनुभव किया और बाद की यात्राओं में मैंने क्या परिवर्तन देखा इसका विवरण मैं अगली पोस्ट में प्रस्तुत करूंगा । – योगेन्द्र
फ़रवरी 19, 2009 at 12:57 अपराह्न
तमिलनाडु में देखी जाने वाली हिन्दी के प्रति ऐसी भावना चिन्ता का विषय है। अच्छा आलेख है।
फ़रवरी 25, 2009 at 12:41 पूर्वाह्न
काफी रोचक लगा आपके अनुभवों को पढना. आगे जानने की भी इच्छा है.
कृपया आगे का वर्णन भी लिखें.
तमिलनाडु की बात छोडें आज हिन्दीभाषी प्रदेशों के महानगरों के लोग भी हिंदी बोलने में शर्म महसूस करते हैं.
मार्च 2, 2009 at 4:43 अपराह्न
हिंदी के प्रति द्वेष की भावना द्रमुख पार्टियों ने अपने निजी स्वार्थ और राजनैतिक कारणों के लिए अपनाया था| इसके अलावा हिंदी भाषा को कांग्रेस की सरकार ने जबरदस्ती लोगों के ऊपर थोसने की कोशिश की थी | इसे द्रविड़ पार्टियों ने काफी चतुराई के साथ अपने राजनेतिक मकसद के लिए एक मुध्धा बनाया और हिंदी आन्दोलन की शुरुआत की | इसी आन्दोलन के बलबूते द्रमुख पार्टी पहली बार तामिलनाडू में अपनी सरकार बना पाई | अभी का माहोल काफी अलग है | लोग अब समझ चुके हैं की हिंदी विरोध सिर्फ मात्र एक राजनितिक मुधा है और हिंदी पड़ना जरूरी है | अगर अब आप चेन्नई आयेंगे तो काफी प्रतिशत लोग हिंदी को अच्छी तरह समझते और बोल भी सकते हैं | इसका श्रेय लोगों में जागरुकता और कई हिंदी भाषीय क्षेत्रों से लोगों का चेन्नई और अन्य तामिलनाडू शहरों मैं आ कर बसना भी है |